SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः ४४७ उदा०-निष्केण क्रीतं नैष्किकम्, एवम्-निष्कस्य विकारो नैष्किकः । शतेन क्रीतं शत्यम्, शतिकम् । एवम्-शतस्य विकार: शत्य:, शतिकः । सहस्रेण क्रीतं साहस्रम्। एवम्-सहस्रस्य विकार: साहस्र: । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (परिमाणात्) परिमाणवाची प्रातिपदिक से (विकार:) विकार अर्थ में (क्रीतवत्) क्रीत अर्थ के समान प्रत्यय होते हैं। अर्थात्-प्राग्वतेष्ठ (५ १११८) से लेकर क्रीत' अर्थ में जो प्रत्यय परिमाणवाची शब्द से विधान किये गये हैं वे उक्त शब्द से विकार अर्थ में भी होते हैं। उदा०-निष्क के द्वारा क्रीत (खरीदा हुआ) नैष्किक। ऐसे ही-निष्क का विकार-नैष्किक। शत (मुद्रा) से क्रीत-शत्य, शतिक। शत का विकार-शत्य, शतिक। सहस्र (मुद्रा) से क्रीत-साहस्र । सहस्र का विकार-साहस्र। सिद्धि-(१) नैष्किकम् । निष्क+टा+ठञ् । नैष्क्+इक । नैष्किक+सु। नैष्किकम्। __ यहां तृतीया-समर्थ निष्क' शब्द से प्राग्वतेष्ठ (५।१।१८) के अधिकार में तेन क्रीतम् (५।१।३७) से ठञ्' प्रत्यय है। यह ठञ्' प्रत्यय परिमाणवाची शब्द से इस सूत्र से विकार अर्थ में भी होता है। 'ठस्येकः' (७।३।५०) से ' के स्थान में 'इक्' आदेश होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। (२) शत्यः । शत+टा+यत् । यत्+य। शत्य+सु । शत्यः। यहां 'शत' शब्द से क्रीत अर्थ में 'शताच्च ठन्यतावशते' (५।१।२१) से 'यत्' प्रत्यय होता है। वह इस सूत्र से विकार अर्थ में विहित किया गया है। 'यस्येति च (६ ।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। (३) शतिकः । शत+टा+ठन् । शत्+इक। शतिक+सु। शतिकः । यहां 'शत' शब्द से पूर्ववत् ठन्' प्रत्यय है और वह इस सूत्र से विकार अर्थ में भी विहित है। (४) साहस्रः । सहस्र+टा+अण् । साहस्र+अ। साहस्र+सु । साहस्रः। यहां सहस्र' शब्द से क्रीत अर्थ में 'शतमानविंशतिसहस्रवसनादण्' (५।१।२७) से 'अण्' प्रत्यय है, वह इस सूत्र से विकार अर्थ में भी विहित किया गया है। शत और सहस्र संख्यावाची शब्द भी परिमाण अर्थ के वाचक हैं। विशेष: निष्क (१६ माशे का सोने का सिक्का) से खरीदा हुआ पदार्थ-नैष्किक कहाता है। निष्क का विकार अर्थात् निष्क नामक सिक्कों को तुड़वाकर जो आभूषण आदि बनवाया गया है वह नैष्किक कहाता है। ऐसे ही-शत और सहस्र रूप्य अर्थ में समझ लेवें। पाणिनिकाल में कागजी रूप्य का व्यवहार नहीं था। धातु-रूप्य का ही प्रचलन था। यहां उसके विकार का वर्णन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy