________________
४४१
चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः मयट्-प्रतिषेधः
(१७) नोत्वद्वर्धबिल्वात्।१४६ । प०वि०-न अव्ययपदम्, उत्वद्-वर्ध-बिल्वात् ५।१ ।
स०-उद् अस्त्यस्मिँस्तद् उत्वत्। उत्वच्च वर्धश्च बिल्वश्च एतेषां समाहार उत्वद्वर्धबिल्वम्, तस्मात्-उत्ववर्धबिल्वात् (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-तस्य, विकार:, अवयवे, च, मयट, छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तस्य उत्ववर्धबिल्वाद् अवयवे विकारे च मयट् न ।
अर्थ:-छन्दसि विषये तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् उत्वतो वर्धबिल्वाभ्यां च प्रातिपदिकाभ्यामवयवे विकारे चार्थे मयट् प्रत्ययो न भवति।
उदा०-(उत्वत्) मौजे शिक्यम् (तै०सं० ५।१।१०।५)। गार्मुतं चरुम् (तै०सं० २।४।४।१) । (वर्धम्) दार्थी बालग्रथिता भवति (आ०श्रौ० १८।१०।२३)। (बिल्व:) बैल्वो ब्रह्मवर्चकामेन कार्य: (मै०सं० ३।९।३)।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तस्य) षष्ठी-समर्थ (उत्वद्वर्धबिल्वात्) उत्वत्-उकारवान्, वर्ध और बिल्व प्रातिपदिकों से (अवयवे) अवयव (च) और (विकार:) विकार अर्थ में (मयट) मयट् प्रत्यय (न) नहीं होता है।
उदा०-(उत्वत्) मौजे शिक्यम् । मुञ्ज का विकार-मौज शिक्य (छींका)। गार्मुतं चरु । गर्मुत् का विकार-गार्मुत चरु । गर्मुत् का बना हुआ चरु । गर्मुत्-घासविशेष । चरु हव्य-अन्न। (वर्ध) वर्ध का विकार-वार्धी। चमड़े का तसमा (बाधी)। बैल्वो ब्रह्मवर्चसकामेन कार्य: । बैल्व=विल्व (बल-गिरि) का विकार। ब्रह्मतेज के इच्छुक ब्रह्मचारी को बैल्व दण्ड धारण करना चाहिये।
सिद्धि-(१) मौजम् । मुञ्ज+डस्+अण् । मौज्+अ। मौज+सु। मौजम्।
यहां षष्ठी-समर्थ, उत्वत्-उकारवान् मुञ्ज' शब्द से अवयव और विकार अर्थ में इस सूत्र से 'मयट' प्रत्यय का प्रतिषेध है। व्यचश्छन्दसि' (४।३।१५०) से 'मयट्' प्रत्यय प्राप्त होता था। उसका प्रतिषेध होने पर प्राग्दीव्यतोऽण् (४।१।८३) से प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
(२) गार्मुतम् । यहां षष्ठी-समर्थ उकारवान् 'गर्मुत्' शब्द से इस सूत्र से मयट्' प्रत्यय का प्रतिषेध होने से 'अनुदात्तादेश्च' (४।३।१३८) से 'अञ्' प्रत्यय होता है। 'ग्रोर्मुट्' (उणा० १।९५) से 'गृ' धातु से 'अति' प्रत्यय और 'मुट्' आगम होने पर गर्मुत्' शब्द सिद्ध होता है। गर्मुत्' शब्द प्रत्यय-स्वर से अन्तोदात्त होने से अनुदात्तादि है-गर्मुत् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org