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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(तिल) तिल का अवयव वा विकार-तिलमय । (यव) यव-जौ का अवयव वा विकार-यवमय।
सिद्धि-तिलमयम् । तिल+डस्+मयट् । तिल+मय। तिलमय+सु। तिलमयम्।
यहां षष्ठी-समर्थ, तिल' शब्द से विकार अर्थ में और असंज्ञा अर्थ की प्रतीति में इस सूत्र से 'मयट' प्रत्यय है। ऐसे ही-यवमयम्। संज्ञाविषय में तो 'अवयवे च प्राण्यौषधिवृक्षेभ्यः' (४।३।१३३) से प्राग्दीव्यतीय ‘अण्' प्रत्यय होता है-तैलम् । मयट्
(१६) व्यचश्छन्दसि।१४८। प०वि०-द्वयच: ५।१ छन्दसि ७१। स०-द्वावचौ यस्मिँस्तद् व्यच्, तस्मात्-व्यच: (बहुव्रीहिः)। अनु०-तस्य, विकारः, अवयवे, च इति चानुवर्तते । अन्वय:-छन्दसि तस्य व्यचोऽवयवे विकारे च मयट् ।
अर्थ:-छन्दसि विषये तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् द्वि-अच: प्रातिपदिकाद् अवयवे विकारे चार्थे मयट् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-यस्य पर्णमयी जुहूर्भवति (तै०सं० ३।५।७।१)। दर्भमयं वासो भवति (मै०सं० १।११।८) । शरमयं बर्हिर्भवति (आoश्रौ० ९.१७।५)।
आर्यभाषा: अर्थ-छिन्दसि) वेदविषय में (तस्य) षष्ठी-समर्थ (द्वि-अच:) दो अचोंवाले प्रातिपदिक से (अवयवे) अवयव (च) और (विकार:) विकार अर्थ में (मयट्) मयट् प्रत्यय होता है।
उदा०-संस्कृत भाग में देख लेवें। अर्थ इस प्रकार है-जिसकी पर्णमयी (पर्ण का विकार) जुहू (आहुति चमस) होती है। दर्भमय (दर्भ का विकार) वास आच्छादन होता है। शरमय (सरकंडे का विकार) बर्हिः आसन होता है।
सिद्धि-पर्णमयी। पर्ण+डस्+मयट् । पर्ण+मय। पर्णमय+डीप्। पर्णमयी+सु । पर्णमयी।
यहां षष्ठी-समर्थ, दो अचोंवाले 'पर्ण' शब्द से अवयव और विकार अर्थ में इस सूत्र से 'मयट्' प्रत्यय है। 'मयट्' प्रत्यय के टित् होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में टिड्ढाणञ् (४।१।१५) से डीप् प्रत्यय होता है। ऐसे ही-दर्भमयम्, शरमयम् ।
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