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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः तित्तिडीक आदि शब्द 'लघावन्ते०' (फिट० २।१९) से मध्योदात्त होने से अनुदात्तादि हैं, अत: यह 'अनुदात्तादेश्च' (४।३।१४०) से प्राप्त 'अञ्' प्रत्यय का अपवाद है।
विशेष: यहां तर्कु' शब्द से केवल विकार अर्थ में और तित्तिडीक (वृक्ष), मण्डूक (मेंढक) दर्दुरूक (मेंढक) मधूक (वृक्ष) इन प्राणीवाची और वृक्षवाची शब्दों से अवयवे च प्राण्योषधिवृक्षेभ्यः (४।३।१३५) इस नियम-सूत्र से विकार और अवयव अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है। अण् (षुक)
(४) पुजतुनोः षुक्।१३६। प०वि०-त्रपु-जतुनो: ६।२ षुक् १।१।
स०-त्रपु च जतु च ते त्रपुजतुनी, तयो:-त्रपुजतुनो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-तस्य, विकार इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य वपुजतुभ्यां विकारोऽण् तयोश्च षुक् ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाभ्यां वपुजतुभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां विकार इत्यस्मिन्नर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, तयोश्च षुक्-आगमो भवति ।
उदा०-(पु) त्रपुणो विकार:-त्रापुषम्। (जतु) जतुनो विकार:जातुषम्।
आर्यभाषा अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (पुजतुनोः) त्रपु, जतु प्रातिपदिकों से (विकार:) विकार अर्थ में (अण) प्रत्यय होता है (षुक्) और उन्हें षुक् आगम होता है।
उदा०-(पु) वपु सीसा/रांग का विकार-त्रापुष । जतु-गोंद/लाख का विकार-जातुष।
सिद्धि-त्रापुषम् । त्रपु+डस्+अण् । त्रापुषुक्+अ । त्रापुष्+अ । त्रापुष+सु । त्रापुषम् । ___ यहां षष्ठी-समर्थ 'पु' शब्द से विकार अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय और पु' शब्द को 'पुक्' आगम होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-जातुषम्। अञ्
(५) ओरञ्।१३६। प०वि०-ओ: ५।१ अञ् ११। अनु०-तस्य, विकार:, अवयवे, च इति चानुवर्तते।
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