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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वय:-तस्य ओरवयवे विकारे चाऽण् ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् ओ:-उकारान्तात् प्रातिपदिकाद् अवयवे विकारे चार्थेऽञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-देवदारोरवयवो विकारो वा दैवदारवम्। भद्रदारोरवयवो विकारो वा भाद्रदारवम् ।
आर्यभाषा अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (ओ:) उकारान्त प्रातिपदिक से (अवयवे) अवयव (च) और (विकार:) विकार अर्थ में (अञ्) अञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-देवदारु का अवयव विकार-दैवदारव। देवदारु देवदार एक पहाड़ी पेड़ है जिसकी लकड़ी कड़ी, हल्की और पीले रंग की होती है। भद्रदारु का अवयव वा विकार-भाद्रदारव। 'भद्रदारु' शब्द देवदारु' का पर्यायवाची है।
सिद्धि-दैवदारवम् । देवदारु+डस्+अण् । दैवदारो+अ। दैवदारव+सु । दैवदारवम् ।
यहां षष्ठी-समर्थ, उकारान्त देवदारु' शब्द से इसके वृक्षवाची होने से पूर्वोक्त नियम से अवयव और विकार अर्थ में इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादे:' (७/२/११७) से अंग को आदिवृद्धि तथा 'ओर्गुणः' (४।४।१४६) से अंग को गुण होता है। देवदारु और भद्रदारु शब्द 'पीतवर्थानाम्' (फिट० २।१४) से आधुदात्त हैं। अत: अनुदात्तादेश्च' (४।३।१३८) का यहां अवकाश नहीं है अत: ये इस सूत्र के उदाहरण है। पीतद्रु-सरल वनस्पति। अञ्
(६) अनुदात्तादेश्च ।१३८ । प०वि०-अनुदात्त-आदे: ५।१ च अव्ययपदम् । अनु०-तस्य, विकार:, अवयवे, च इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्याऽनुदात्तादेरवयवे विकारे चाऽञ् ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् अनुदात्तादे: प्रातिपदिकाच्च अवयवे विकारे चार्थेऽञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-दधित्थस्यावयवो विकारो वा दाधित्थम्। कपित्थस्य विकारोऽवयवो वा कापित्थम्। महित्थस्यावयवो विकारो वा माहित्थम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (अनुदात्तादे:) अनुदात्तादि प्रातिपदिक से (च) भी (अवयवे) अवयव (च) और (विकार:) विकार अर्थ में (अञ्) अञ् प्रत्यय होता है।
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