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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
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(२) ओषधि और वृक्ष में यह अन्तर है कि ओषधियां फल-पाक के पश्चात् नष्ट हो जाती हैं, वृक्ष नहीं । वृक्ष पुष्पवान् और फलवान् होते हैं। वनस्पतियां केवल फलवान् होती हैं। वृक्ष में वनस्पतियों का भी अन्तर्भाव हो जाता है।
(३) इस प्रकरण में विधीयमान प्रत्यय प्राणी, ओषधि और वृक्षवाची प्रातिपदिकों से अवयव और विकार अर्थ में होते हैं। अन्य प्रातिपदिकों से केवल विकार अर्थ में होते हैं क्योंकि यह विकार और अवयव अर्थ का एक साथ अधिकार इस अपवाद के विधान के लिये किया गया है।
अण्
(२) बिल्वादिभ्योऽण् | १३४ |
प०वि०- बिल्व-आदिभ्यः ५ । ३ अण् १ । १ ।
स०-बिल्व आदिर्येषां ते बिल्वादयः, तेभ्य:- बिल्वादिभ्यः ( बहुव्रीहि: ) । अनु० - तस्य विकार:, अवयवे च इति चानुवर्तते ।
,
अन्वयः-तस्य बिल्वादिभ्योऽवयवे विकारे चाऽण् ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थेभ्यो बिल्वादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्योऽवयवे विकारे चार्थेऽण् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-बिल्वस्यावयवो विकारो वा बैल्वः । गवेधुकाया अवयवो विकारो वा गावेधुकः ।
बिल्व। व्रीहि। काण्ड। मुद्ग । इक्षु । वेणु । गवेधुका । कर्पासी 1 पाटली। कर्कन्धू । कुटीर । इति बिल्वादयः । ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तस्य) षष्ठी-समर्थ (बिल्वादिभ्यः) बिल्व आदि प्रातिपदिकों से (अवयवे) अवयव (च) और (विकार) विकार अर्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है। उदा०-बिल्व-बेलगिरी का अवयव वा विकार - बैल्व । गवेधुका = (गौ आदि पशुओं के खाने का घास) का अवयव वा विकार - गावेधुक ।
सिद्धि - (१) बैल्वः । बिल्व + ङस् +अण् । बैल्व्+अ । बैल्व+सु । बैल्वः ।
यहां षष्ठी- समर्थ 'बिल्व' शब्द से अवयव और विकार अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। 'बिल्वतिष्ययोः स्वरितो वा' (फिट्० १।२३) से 'बिल्व' शब्द अन्तः स्वरित वा अन्तोदात्त होने से अनुदात्तादि है-बि्रल्वे, बल्वः । अतः 'अनुदात्तादेश्च' ( ४ | ३ | १४० ) से 'अञ्’ प्रत्यय प्राप्त था। यह 'अण्' प्रत्यय उसका अपवाद है ।
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