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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनु०-तस्य, विकार इति चानुवर्तते।
अन्वय:-तस्य प्राण्योषधिवृक्षेभ्योऽवयवे विकारे च यथाविहितं प्रत्यय:।
___ अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थेभ्यः प्राणि-ओषधि-वृक्षवाचिभ्यः प्रातिपदिकेभ्योऽवयवे विकारे चार्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, इत्यधिकारोऽयम्।
उदा०-(प्राणी) कपोतस्यावयवो विकारो वा-कापोत:। मायूरः । तैत्तिरः। (ओषधि:) मूळया अवयवो मौर्वं काण्डम्। मूळया विकारो मौर्वं भस्म । (वृक्षः) करीरस्यावयव: कारीरं काण्डम् । करीरस्य विकार: कारीरं भस्म।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (प्राण्योषधिवृक्षेभ्य:) प्राणी, ओषधि और वृक्षवाची प्रातिपदिकों से (अवयवे) अवयव अंग (च) और (विकार:) विकार अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है।
उदा०-(प्राणी) कपोत-कबूतर का अवयव वा विकार-कापोत। मयूर-मोर का अवयव वा विकार-मायूर। तित्तिरि तीतर का अवयव वा विकार-तैत्तिर। (ओषधि) मूर्वा मरोड़फली का अवयव-मौर्व काण्ड (तना)। मूर्वा का विकार-मौर्व भस्म। (वृक्ष) करीर कैर का अवयव-कारीर काण्ड (तना)। करीर का विकार कारीर भस्म।।
सिद्धि-(१) कपोत: । कपोत+ङस्+अञ् । कापोत्+अ। कापोत+सु । कापोत:।
यहां षष्ठी-समर्थ, प्राणीवाची कपोत' शब्द से अवयव और विकार अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है। अत: इस अधिकार में वक्ष्यमाण प्राणिरजतादिभ्योऽज्ञ (४।३।१५२) से यथाविहित 'अन्' प्रत्यय होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-मायूरः, तैत्तिरः।
(२) मौर्वम् । मूर्वा+डस्+अण् । मौ+अ । मौर्व+सु । मौर्वम्।
यहां षष्ठी-समर्थ, ओषधिवाची मूर्वा' शब्द से अवयव और विकार अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है। अत: प्रागदीव्यतोऽण' (४११४८३) से यथाविहित प्रागदीव्यतीय 'अण' प्रत्यय होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के आकार का लोप होता है। ऐसे ही-कारीरम् ।
विशेषः (१) मूर्वा-मरोड़फली नाम की बेल जिसके रेशे निकालकर धनुष के रोदे की डोरी और क्षत्रिय का कटिसूत्र बनाया जाता है (श०को०)।
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