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________________ ४२७ चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः ४२७ विकारावयवार्थप्रत्ययप्रकरणम् यथाविहितं प्रत्ययः (१) तस्य विकारः । १३२। प०वि०-तस्य ६ ।१ विकार: १।१। अन्वय:-तस्य प्रातिपदिकाद् विकारो यथाविहितं प्रत्यूयः । अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् प्रातिपदिकाद् विकार इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, इत्यधिकारोयम्। प्रकृतेरवस्थान्तरं विकार इति कथ्यते। उदा०-अश्मनो विकार:-आश्म:, आश्मनो वा। भस्मनो विकार:भास्मनः। मृत्तिकाया विकार:-मार्तिकः । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ प्रातिपदिक से (विकारः) विकार अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। उदा०-अश्मा (पत्थर) का विकार-आश्म, वा आश्मन । भस्म का विकार-भास्मन। मृत्तिका (मिट्टी) का विकार-मार्तिक। सिद्धि-आश्म: । अश्मन्+डस्+अण् । आश्मन्+अ। आश्म्+अ । आश्मः । यहां षष्ठी-समर्थ 'अश्मन्' शब्द से इदम् अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है। अत: प्रागदीव्यतोऽण् (४।१।८३) से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और वा०-'अश्मनो विकार उपसंख्यानम् (६।४।१४४) से 'अश्मन्' शब्द के टि-भाग (अन्) का विकल्प से लोप होता है। जहां टि-भाग का लोप नहीं होता वहां-आश्मनः । ऐसे ही-भास्मनः, मार्तिक: आदि। विशेष: तस्य' इस षष्ठी-समर्थ विभक्ति की अनुवृत्ति होने पर पुन: इस सूत्र में तस्य' पद का ग्रहण 'शेषे' (४।२।९२) इस शेष-अधिकार की निवृत्ति के लिये है। यथाविहितं प्रत्ययः (२) अवयवे च प्राण्योषधिवृक्षेभ्यः ।१३३ । प०वि०-अवयवे ७१ च अव्ययपदम्, प्राणि-ओषधि-वृक्षेभ्य: ५।३। स०-प्राणी च ओषधिश्च वृक्षश्च ते प्राण्योषधिवृक्षाः, तेषुप्राण्योषधिवृक्षेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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