________________
चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
४२१ (२) गार्ग: । गर्ग+यञ् । गर्ग+० । गर्ग+आम्+अण् । गर्ग+अ । गार्ग+अ । गार्ग+जस् । गार्गाः।
यहां प्रथम 'गर्गादिभ्यो यस्' (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में यञ्' प्रत्यय होता है। यज्-लुगन्त गर्ग' शब्द से इस सूत्र से पूर्वोक्त अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। बहुत्व-विवक्षा में पूर्ववत् 'यञ्' प्रत्यय का लुक् होता है। तत्पश्चात् गर्ग' शब्द से 'अण' प्रत्ययविधि होती है। पूर्ववत् अंग को आदिवद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
(३) दाक्षाः । दक्ष+इञ् । दाक्षि। दाक्षि+आम्+अण् । दाक्ष्+अ । दाक्ष+जस् । दाक्षाः ।
यहां प्रथम दक्ष' शब्द से 'अत इञ (४।१।९५) से 'इ' प्रत्यय होता है। इजन्त दाक्षि' शब्द से पूर्वोक्त अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है।
विशेष: (१) अंक और लक्षण शब्द पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते हैं किन्तु यहां दोनों पदों का ग्रहण किया गया है। अत: यहां अंक और लक्षण में यह अन्तर है कि अड्क (चिह्न) गौ आदि पशुओं में अवस्थित होता हुआ उनका स्व (आत्मीय) नहीं होता है किन्तु लक्षणभूत पदार्थ का चिह्नभूत स्व (आत्मीय) होता है। जैसे बिद लोगों का विद्यारूप चिह्न स्व-आत्मीय लक्षण है।
(२) यहां अञ्, यज्, इञ् प्रत्ययान्त तीन प्रातिपदिक हैं और संघ, अंक, लक्षण ये तीन प्रत्ययार्थ हैं, अत: यथासंख्यमनुदेश: समानाम् (१।३।१०) से यथासंख्य प्रत्ययविधि होनी चाहिये किन्तु यहां यथासंख्यता अभीष्ट नहीं है। यथासंख्यता के निवारण के लिये वैयाकरण यहां घोष' शब्द का ग्रहण करते हैं-वा०- 'घोषग्रहणमत्र कर्तव्यम् । घोष ग्राम। अणप्रत्यय-विकल्पः
(८) शाकलाद् वा ।१२८ । प०वि०-शाकलात् ५।१ वा अव्ययपदम्। अनु०-तस्य, इदम्, अण्, सङ्घाङ्कलक्षणेषु इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य शाकलाद् इदं वाऽण् सङ्घाकलक्षणेषु ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् शाकलात् प्रातिपदिकाद् इदमित्यस्मिन्नर्थे विकल्पेन अण् प्रत्ययो भवति, यद् इदमिति सङ्घोऽको लक्षणं चेत् तद् भवति, पक्षे च वुञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-शकलस्य गोत्रापत्यम्-शाकल्य:, शाकल्येन प्रोक्तम्-शाकलम् । शाकलम् अधीयते-शाकला: । शाकलानां सङ्घ:, अङ्क:, लक्षणं वा-शाकलम्, शाकलकं वा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org