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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः विशेष: परिषद्-पाणिनि ने तीन प्रकार की परिषदों का उल्लेख किया है (१) शिक्षा-सम्बन्धी (२) समाज में गोष्ठी-सम्बन्धी (३) राज-शासन सम्बन्धी। पहले प्रकार की परिषद् चरण के अन्तर्गत एक प्रकार की विद्वत्सभा थी जो उच्चारण और व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का निश्चय करती थी और शाखा के पाठ आदि के विषय में भी जिसमें विचार होता था। सूत्र (४।३।१२३) में चरण-परिषद् का ही उल्लेख है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २९१)। ठक्
(५) हलसीराक् ।१२४ । प०वि०-हल-सीरात् ५।१ ठक् १।१।
स०-हलं च सीरश्च एतयो: समाहारो हलसीरम्, तस्मात्-हलसीरात् (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-तस्य, इदमिति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य हलसीराद् इदं ठक्।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाभ्यां हलसीराभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां इदमित्यस्मिन्नर्थे ठक् प्रत्ययो भवति।
उदा०-(हलम्) हलस्येदम्-हालिकम्। (सीरः) सीरस्येदम्-सैरिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्प) षष्ठी-समर्थ (हलसीरात्) हल, सीर प्रातिपदिकों से (इदम्) यह अर्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-(हल) हल का यह-हालिक बैल आदि। (सीर) सीर-हलविशेष का यह-सैरिक (बैल)। हल में जुड़नेवाला बैल आदि।
सिद्धि-हालिकम् । हल+ठक् । हाल+इक। हालिक+सु। हालिकम् ।
यहां षष्ठी-समर्थ हल' शब्द से इदम् अर्थ में इस सूत्र से ठक्’ प्रत्यय है। किति च' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-सैरिकम् । वुन्
(५) द्वन्द्वाद् वुन् वैरमैथुनिकयोः । १२५ । प०वि०-द्वन्द्वात् ५।१ वैर-मैथुनिकयो: ७।२।
स०-मिथुनम् दम्पती। मिथुनस्य कर्म इति मैथुनिका। कर्म= क्रियानिष्पादनम्। 'द्वन्द्वमनोज्ञादिभ्यश्च (५।१।१३३) इति मनोज्ञादित्वाद्
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