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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उपज्ञातार्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्यय:
(१) उपज्ञाते।११५। वि०-उपज्ञाते ७।१। अनु०-तेन इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तेन प्रातिपदिकाद् उपज्ञाते यथाविहितं प्रत्ययः ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् उपज्ञाते इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, विनोपदेशेन ज्ञातम्-उपज्ञातम् स्वयमभिसम्बद्धमित्यर्थः।
उदा०-पाणिनिना उपज्ञातम्-पाणिनीयमकालकं व्याकरणम् । काशकृत्स्निना उपज्ञातम्-काशकृत्स्नं गुरुलाघवम् (अर्थशास्त्रम्) । आपिशलिना उपज्ञातम्-आपिशलं दुष्करणम्।
आर्यभाषा: अर्थ- (तेन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (उपज्ञाते) उपज्ञात अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। विना उपदेश के ज्ञात, स्वयं सम्बद्ध विषय को उपज्ञात' कहते हैं।
उदा०-पाणिनि के द्वारा उपज्ञात-पाणिनीय काल परिभाषा से रहित व्याकरणशास्त्र (अष्टाध्यायी)। काशकृत्स्नि के द्वारा उपज्ञात-काशकृत्स्न गुरुलाघव नामक अर्थशास्त्र। जिसमें उपायों के गौरव-लाघव का चिन्तन किया गया है। आपिशलि के द्वारा उपज्ञात-आपिशल दुष्करण। पाणिनीय व्याकरणशास्त्र के वत्-करण के समान समाप्ति-सूचक दुष्-करणवाला व्याकरण। किन्हीं के मत में दुष्करण' का अर्थ कामशास्त्र है।
सिद्धि-(१) पाणिनीयम् । पाणिनि+टा+छ। पाणिन्+ईय। पाणिनीय+सु । पाणिनीयम्।
यहां तृतीया-समर्थ पाणिनि' शब्द से उपज्ञात अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है। अत: 'पाणिनि' शब्द के वृद्धसंज्ञक होने से वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से यथाविहित छ' प्रत्ययं होता है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'छ' के स्थान में 'ईय्' आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है।
(२) काशकृत्स्नम्/आपिशलम् पदों की सिद्धि तेन प्रोक्तम् (४।३।१०१) के प्रवचन में देख लेवें।
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