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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् एकदिगित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति ।
उदा०-सुदाम्ना एकदिक् सौदामनी विद्युत् । हैमवती। त्रैककुदी। पैलुमूली।
'तेन' इत्यनुवर्तमाने पुन: तन' इति समर्थविभक्तिग्रहणं छन्दोऽधिकारनिवृत्त्यर्थं क्रियते यतो हि पूर्वत्र छन्दोऽधिकारात् 'छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि' (४।२।६६) इत्यनेन तद्विषयता=अध्येतृवेदितृविषयता संसाध्यते।
आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (एकदिक्) समानदिशावाला अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है।
उदा०-सुदामा नामक पर्वत की एकदिक्-समान दिशावाली विद्युत्-सौदामनी। हिमवान् पर्वत की एकदिक्वाली विद्युत्-हैमवती। त्रिककुत् पर्वतं की एक दिक्वाली विद्युत्-त्रैककुदी। पीलु नामक वृक्ष के मूल की एकदिक्वाली विद्युत्-पैलुमूली। पीलु–जालवृक्ष ।
____ “पीलौ गुडफल: लंसी'त्यमरः । तस्य पाकमूले पील्वादिकर्णादिभ्य: कुणब्जाहचौ (अ० ५।२।२४)।
सिद्धि-सौदामनी । सुदामन्+टा+अण् । सुदामन्+अ । सौदामन+डीम् । सौदामनी-सु। सौदामनी।
यहां तृतीया-समर्थ 'सुदामन्’ शब्द से एकदिक् (समानदिशावाला) अर्थ में यक्षविहित प्रत्यय का विधान किया गया है, अत: प्राग्दीव्यतोऽण् (४।११८३) से प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) अंग को आदिवृद्धि होती है। अन् (६।४।१६७) से 'सुमदान्' शब्द प्रकृतिभाव से रहता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में टिड्ढाणञ्०' (४।१।१५) से 'डीप्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही-हैमवती आदि।
विशेष: यहां तेन' पद की अनुवत्ति होने पर पुन: तेन' पद का ग्रहण छन्दोऽधिकार की निवृत्ति के लिये है। इससे पूर्व प्रकरण में छन्दोऽधिकार होने से
छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि' (४।२।६६) से तद्विषयता=अध्येता-वेदिता विषयता सिद्ध की जाती है। तसि :
(२) तसिश्च।११३। प०वि०-तसि: १।१ च अव्ययपदम्। अनु०-तेन, एकदिगति चानुवर्तते।
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