________________
४०७
चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः अनु०-तेन, प्रोक्तम्, छन्दसि, भिक्षुनटसूत्रयोरिति चानुवर्तते।
अन्वय:-तेन कर्मन्दकृशाश्वात् प्रोक्तम् इनि:, भिक्षुनटसूत्रथोश्छन्दसि।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाभ्यां कर्मन्दकृशाश्वाभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां प्रोक्तमित्यस्मिन्नर्थे इनि: प्रत्ययो भवति, यथासंख्यं भिक्षुनटसूत्रयोरभिधेययो:, यत् प्रोक्तं छन्दश्चेत् तद् भवति।
उदा०-(कर्मन्दः) कर्मन्देन प्रोक्तं भिक्षुसूत्रमधीयते-कर्मन्दिनो भिक्षवः। (कृशाश्व:) कृशाश्वेन प्रोक्तं नटसूत्रमधीयते कृशाश्विनः।
आर्यभाषा: अर्थ- (तेन) तृतीया-समर्थ (कर्मन्दकृशाश्वात्) कर्मन्द, कृशाश्व प्रातिपदिकों से (प्रोक्तम्) प्रोक्त अर्थ में (इनि:) इनि प्रत्यय होता (भिक्षुनटसूत्रयोः) यथासंख्य भिक्षुसूत्र और नटसूत्र अर्थ में (छन्दसि) जो प्रोक्त है यदि वह छन्द हो।
___उदा०- (कर्मन्द) कर्मन्द आचार्य के द्वारा प्रोक्त भिक्षुसूत्र के अध्येता-कर्मन्दी भिक्षु । (कृशाश्व) कृशाश्व आचार्य के द्वारा प्रोक्त नट-सूत्र के अध्येता-कृशाश्वी नट।
सिद्धि-कर्मन्दिनः । कर्मन्द+टा+इनि । कर्मन्द्+इन् । कर्मेन्दिन्+जस् । कमन्दिनः ।
यहां तृतीया-समर्थ कर्मन्द' शब्द से प्रोक्त (भिक्षुसूत्र) अर्थ में तथा अध्येता-वेदिता विषय में और छन्द अभिधेय में इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-कृशाश्विनः ।
विशेष: कर्मन्द आचार्य पाराशर्य आचार्य के समान भिक्षु-सूत्रों के प्रवक्ता थे। कृशाश्व आचार्य शिलाली आचार्य के समान नट-सूत्रों के प्रवक्ता थे। भिक्षु-सूत्रों में भिक्षु-साधुजनों के आचार-व्यवहार के नियमों का विधान होता था और नटसूत्र भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र जैसे ग्रन्थ थे।
एकदिगर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः
(१) तेनैकदिक् ।११२। प०वि०-तेन ३१ एकदिक् १।१ ।
स०-एका दिग् यस्य तत्-एकदिक् (बहुव्रीहिः)। एकदिक्= समानदिगित्यर्थः ।
अन्वय:-तेन प्रातिपदिकाद् एकदिग् यथाविहितं प्रत्ययः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org