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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०-1 - (पाराशर्य) पाराशर्य आचार्य के द्वारा प्रोक्त भिक्षु-सूत्र के अध्येता-पाराशरी भिक्षु । (शिलाली) शिलाली आचार्य के द्वारा प्रोक्त नटसूत्र के अध्येता - शैलाली नट । सिद्धि-(१) पाराशरिणः । पाराशर्य+टा+णिनि । पाराशर्य्+इन्। पाराशर्+इन्। पाराशरिन्+जस् । पाराशरिणः ।
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यहां तृतीया-समर्थ, 'पाराशर्य' प्रातिपदिक से प्रोक्त ( भिक्षुसूत्र ) अर्थ में तथा अध्येता - वेदिता विषय में और छन्द अभिधेय में इस सूत्र से 'णिनि' प्रत्यय है। 'तद्धितेष्वचामादेः' (७।२ । ११७ ) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि और 'आपत्यस्य च तद्धितेऽनाति' (६।४।१५१) से अंग के यकार का लोप होता है।
(२) शैलालिनः । शिलालिन् + टा+ णिनि । शैलालिन् +इन् । शैलाल्+इन् । शैलालिन्+जस्। शैलालिनः ।
यहां 'नस्तद्धितें' (६ । ४ । १४४ ) से अंग के टि-भाग (इन्) का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
विशेष: (१) भिक्षुसूत्र और नटसूत्र छन्द (विद) नहीं हैं किन्तु “ छन्दोवत् सूत्राणि भवन्ति” ( महाभाष्य ) इस वचन - प्रमाण से उन्हें इस छन्दोऽधिकार में छन्दोवत् मानकर उनसे तद्विषयता=अध्येता - वेदिता विषय में यह प्रत्ययविधि की जाती है।
(२) पाराशर्य-मूल भिक्षुसूत्रों की रचना वैदिक चरण के अन्तर्गत हुई । व्यक्तिविशेष का उनके साथ सम्बन्ध आनुषङ्गिक था । मूलतः ऋग्वेद की वाष्कल शाखा के अन्तर्गत पाराशर्य चरण की स्थिति थी। इसी चरण के कल्पसूत्र का अध्ययन करनेवाले ‘पाराशर-कल्पिक' या ‘पाराशरा: ' और भिक्षुसूत्रों के अध्येता 'पाराशरिणः' कहलाते थे ( पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३३० ) ।
(३) शिलाली । पाणिनि मुनि ने शिलाली आचार्य को नट-सूत्रों का प्रवचनकर्ता कहा है- 'शैलालिनो नटाः'। इनका एक वैदिक चरण था जिसमें मुख्यत: नाट्यशास्त्र का अध्ययन किया जाता था। मूलतः शैलालक ऋग्वेद का चरण था जिन्होंने एक ब्राह्मण ग्रन्थ का भी विकास किया था। इस चरण में नट- सूत्र जैसे लौकिक विषय का विकास करके वैदिक अध्ययन के क्षेत्र में एक नये मार्ग का प्रवर्तन किया गया (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३१५) । इनि:
(११) कर्मन्दकृशाश्वादिनिः । १११ । प०वि०-कर्मन्द- कृशाश्वात् ५ ।१ इनिः १ । १ । स०-कर्मन्दश्च कृशाश्वश्च तौ कर्मन्दकृशाश्वौ, ताभ्याम् - कर्मन्दकृशाश्वाभ्याम् (इतरेतरयोगन्द्वः) ।
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