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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः (२) चरका: । चरक+टा+अण् । चरक+० । चरक+जस् । चरकाः ।
यहां तृतीया-समर्थ 'चरक' शब्द से तेन प्रोक्तम्' (४।३।१०१) से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय 'अण्’ प्रत्यय है। इस सूत्र से उसका लुक् होता है।
विशेष: (१) कठ-'कठ' वैशम्पायन आचार्य के नौ शिष्यों में से एक थे तथा वे कठ' नामक चरण (वैदिक-विद्यापीठ) के संस्थापक आचार्य थे। यह चरकों का अति प्रसिद्ध चरण था जिसके अनुयायी गांव-गांव में फैल गये थे (महाभाष्य ४।३।१०१)।
(२) चरक-पाणिनि के अनुसार चरक-चरण के विद्वान् चरक' नाम से प्रसिद्ध थे। काशिका के अनुसार वैशम्पायन की संज्ञा चरक थी “चरक इति वैशम्पायनस्याख्या, तत्सम्बन्धेन सर्वे तदन्तेवासिनश्चरका इत्युच्यन्ते" (४।३।१०४)। चरक का मूल अर्थ ज्ञानोपार्जन के लिए विचरण करनेवाला विद्वान् था। वैशम्पायन वैदिक आचार्यों में प्रमुख थे। शबर स्वामी ने लिखा है कि कृष्ण यजुर्वेद की समस्त शाखाओं के अध्यापन का श्रेय वैशम्पायन को था “स्मर्यते च वैशम्पायन: सर्वशाखाध्यायी” (मी०भा० १११।३०)। वैशम्पायन के अन्तेवासी शिष्यों द्वारा स्थापित चरण दूर-दूर तक कई दिशाओं में फैले हुये थे। पतंजलि के अनुसार तीन मध्य देश में, तीन उत्तर में और तीन प्राच्य देश में निवास करते थे (४।२।१३८)। आलम्बि, पलम और कमल द्वारा स्थापित आलम्बी, पालङ्गी और कामली चरकों के ये तीन चरण प्राच्य देश में थे। ऋचाभ, आरुणि, ताण्ड्य इन तीन आचार्यों के द्वारा स्थापित आर्चाभी, आरुणी और ताण्डी ये तीन चरण मध्यदेश में थे। श्यामायन, कठ और कलापी आचार्यों के चरण श्यामायनी, कठ, कालाप ये उदीच्य देश में थे।
आलम्बिश्चरक: प्राचां पलङ्गकमलावुभौ। ऋचाभारुणिताण्ड्याश्च मध्यमीयास्त्रयोऽपरे।।
श्यामायन उदीच्येषु उक्त: कठकलापिनोः।। (काशिका ४।३।१०४) अण्
(८) कलापिनोऽण् ।१०८। प०वि०-कलापिन: ५।१ अण् १।१। अनु०-तेन, प्रोक्तम्, छन्दसीति चानुवर्तते । अन्वय:-तेन कलापिन: प्रोक्तम् अण् छन्दसि।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् कलापिन: प्रातिपदिकात् प्रोक्तमित्यस्मिन्नर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, यत् प्रोक्तं छन्दश्चेत् तद भवति ।
उदा०-कलापिना प्रोक्तं छन्दोऽधीयते-कालापाः ।
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