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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ (कलापिन:) कलापिन् प्रातिपदिक से (प्रोक्तम्) प्रोक्त अर्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है (छन्दसि) जो प्रोक्त है यदि वह छन्द हो।
उदा०-कलापी आचार्य के द्वारा प्रोक्त (छन्द-ग्रन्थ) के अध्येता-कालाप। सिद्धि-कालापा: । कलापिन्+टा+अण्। कालाप्+अ। कालाप+जस् । कालापाः।
यहां तृतीया-समर्थ, कलापिन् प्रातिपदिक से, अध्येता-वेदिता विषय में एवं छन्द अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से 'अण' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। इनण्यनपत्ये' (६।४।१६४) से प्रकृतिभाव प्राप्त होने पर वा०-'नान्तस्य टिलोपे सब्रह्मचारिपीठसर्पिकलापि....."सुपर्वणामुपसंख्यानम् (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (इन्) का लोप होता है।
यहां प्राग्दीव्यतोऽण् (४।१।८३) के अधिकार में यथाविहित 'अण्' प्रत्यय सिद्ध ही था पुन: 'अण्' प्रत्यय का कथन अधिक-विधान के लिये किया गया है कि यदि अभीष्ट हो तो अन्य प्रातिपदिक से भी 'अण' प्रत्यय हो जाये। जैसे-माथुरी वृत्ति:, सौलभानि ब्राह्मणानि।
विशेष: कलापी-कालाप' यह चरकों का उदीच्य चरण था। वैशम्पायन आचार्य के अन्तेवासियों में कलापी आचार्य स्वयं बहुत उच्चकोटि के विद्वान् थे। उन्होंने केवल नये चरण की ही स्थापना नहीं की अपितु उनके हरिदु, छगली, तुम्बुरु और उलप ये चार शिष्य ऐसे उत्कृष्ट विद्वान् हुये जो एक-एक चरण के संस्थापक थे। ढिनुक्
(६) छगलिनो ढिनुक् ।१०६ | प०वि०-छगलिन: ५।१ ढिनुक् ११। अनु०-तेन, प्रोक्तम्, छन्दसीति चानुवर्तते । अन्वय:-तेन छगलिन: प्रोक्तं ढिनुक् छन्दसि।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाच्छगलिन: प्रातिपदिकात् प्रोक्तमित्यस्मिन्नर्थे दिनुक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रोक्तं छन्दश्चेत् तद् भवति।
उदा०-छगलिना प्रोक्तं छन्दोऽधीयते-छागलेयिनः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तेन) तृतीया-समर्थ (छगलिन:) छगलिन् प्रातिपदिक से (प्रोक्तम्) प्रोक्त अर्थ में (डिनुक्) ढिनुक् प्रत्यय होता है (छन्दसि) जो प्रोक्त है यदि वह छन्द हो।
उदा०-छगली आचार्य के द्वारा प्रोक्त (छन्द-ग्रन्थ) के अध्येता-छागलेयी।
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