________________
चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
૩૬૭ उदा०-(तित्तिरि) तित्तिर आचार्य के द्वारा प्रोक्त छन्द (शाखा ग्रन्थ) के अध्येता (छात्र)-तैत्तिरीय। (वरतन्तु) वरतन्तु आचार्य के द्वारा प्रोक्त छन्दों के अध्येता (छात्र)-वारतन्तवीय। (खण्डिक) खण्डिक आचार्य के द्वारा प्रोक्त छन्दों के अध्येता (छात्र)-खाण्डिकीय। (उख) उख आचार्य के द्वारा प्रोक्त छन्दों के अध्येता (छात्र)औखीय।
सिद्धि-(१) तैत्तिरीयाः । तित्तिरि+टा+छण् । तैत्तिर्+ईय। तैत्तिरीय+जस् । तैत्तिरीया:।
यहां तृतीया-समर्थ तित्तिरि' शब्द से प्रोक्त अर्थ में एवं 'छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि' (४।२।६२) से अध्येता-वेदिता अर्थ में इस सूत्र से 'छण' प्रत्यय है।
आयनेय०' 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश, पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और इकार का लोप होता है।
(२) वारतन्तवीयाः। यहां 'ओर्गणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-खाण्डिकीयाः, औखीया: ।
विशेष: (१) चरणों (वैदिक विद्यापीठ) के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न छन्द या शाखा-ग्रन्थ पढ़ाये जाते थे। उनके अध्येता छात्रों का नाम उन छन्द-ग्रन्थों के नाम से रखा जाता था। जैसे तित्तिरि आचार्य से प्रोक्त तैत्तिरीय शाखा के विद्यार्थी तैत्तिरीय' कहलाते थे (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २८०)।
(२) तैत्तिरीय, वारतन्तवीय, खाण्डिकीय, औखीय ये कृष्ण यजुर्वेद के शाखाग्रन्थ हैं (व्याकरणशास्त्र का इतिहास पृ० १७२)।
(३) तित्तिरि, वरतन्तु, खण्डिक, उख, कठ और कलाप कृष्णयजुर्वेद के चरण-संस्थापक आचार्य थे। इन सबके गुरु वैशम्पायन थे। ये विद्वान् वैशम्पायन के प्रसिद्ध अन्तेवासी थे। प्रत्येक ने स्वयं एक-एक शाखा का प्रवचन किया और चरण की स्थापना की।
(४) तैत्तिरीय- तैत्तिरीय चरण के संस्थापक आचार्य तित्तिरि थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अन्तिम भाग का नाम काठक है। इससे तैत्तिरीय और कठों का निकट सम्बन्ध ज्ञात होता है।
(५) औखीय-तैत्तिरीय चरण के दो उपविभाग हुये-औखीय, खाण्डिकीय।
(६) वारतन्तवीय-पाणिनि के समय इस चरण का पृथक् अस्तित्व था। पाणिनि के शिष्य कौत्स, वरतन्तु के भी शिष्य होने से वारतन्तवीय चरण के साथ सम्बन्धित थे (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३१६, १७)।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org