________________
चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
३६५ सिद्धि-आङ्गकः । अग+जस्+वुञ् । आङ्ग्र+अक। आङ्गक+सु। आगकः ।
यहां 'अङ्ग' शब्द बहुवचनान्त एवं जनपदवाची है। जनपदतदवध्योश्च' (४।२।१२३) के प्रकरण में अवद्धादपि बहुवचनविषयात्' (४।२।१२४) से शेष अर्थ में 'वुञ्' प्रत्यय का विधान किया गया है-अङ्गा जनपदो भक्तिरस्य-आङ्गकः । यह वुञ्' प्रत्यय, इस सूत्र से भक्तिवाची, जनपदी (जनपद के राजा क्षत्रिय) वाचक प्रातिपदिकों से अस्य षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में होता है। अङ्गा क्षत्रिया भक्तिरस्य-आङ्गकः । ऐसे ही 'वाङ्गकः' आदि।
प्रोक्तार्थप्रत्ययप्रकरणम् यथाविहितं प्रत्ययः
(१) तेन प्रोक्तम् ।१०१। प०वि०-तेन ३।१ प्रोक्तम् १।१। अन्वय:-तेन प्रातिपदिकात् प्रोक्तं यथाविहितं प्रत्ययः ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकात् प्रोक्तमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति।
उदा०-पाणिनिना प्रोक्तम्-पाणिनीयम्। आपिशलिना प्रोक्तम्आपिशलम्। काशकृत्स्निना प्रोक्तम्-काशकृत्स्नम्।
आर्यभाषा8 अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (प्रोक्तम्) प्रोक्त अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। प्रोक्त अतिशय व्याख्यात वा अध्यापित।
उदा०-पाणिनि के द्वारा प्रोक्त-पाणिनीय। आपिशलि के द्वारा प्रोक्त-आपिशल। काशकृत्स्नि के द्वारा प्रोक्त-काशकृत्स्न।
सिद्धि-(१) पाणिनीयम् । पाणिनि+टा+छ। पाणिन्+ईय। पाणिनीय+सु । पाणिनीयम्।
यहां तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से प्रोक्त अर्थ में यथाविहित प्रत्यय का विधान किया है। अत: यहां 'पाणिनि' शब्द से 'वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से यथाविहित 'छ' प्रत्यय होता है।
‘पणिन्' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से 'अण्' प्रत्यय करने पर तथा 'गाथिविदथिकेशिगणिपणिनश्च' (४६।४।१६५) से प्रकृतिभाव होने से 'पाणिन' शब्द सिद्ध होता है। पाणिन' शब्द से अनन्तरापत्य अर्थ में 'अत इञ् (४।१।९५) से 'इञ्' प्रत्यय करने पर 'पाणिनि' शब्द सिद्ध होता है। पाणिनि' शब्द से प्रोक्त अर्थ में 'छ' प्रत्यय करने पर पाणिनीय' शब्द सिद्ध होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org