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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०- (गोत्राख्य:) ग्लुचुकायनिर्भक्तिरस्य-ग्लौचुकायनकः । औपगवकः । कापटवकः । (क्षत्रियाख्य:) नकुलो भक्तिरस्य नाकुलकः । साहदेवकः । साम्बकः।
बहुलवचनादत्र वुञ् न भवति-पाणिनो भक्तिरस्य-पाणिनीय: । पौरवो भक्तिरस्य-पौरवीयः । अत्र 'वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) इति छ: प्रत्ययो भवति।
__ आर्यभाषा: अर्थ-(स:) प्रथमा-समर्थ (गोत्रक्षत्रियाख्येभ्य:) गोत्रवाची और क्षत्रियवाची प्रातिपदिकों से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (बहुलम्) प्रायश: (वुञ्) वुञ् प्रत्यय होता है (भक्तिः) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह भक्ति हो।
उदा०-(गोत्र) ग्लुचुकायनि भक्ति है इसकी यह-ग्लौचुकायनक । औपगव भक्ति है इसकी यह-औपगवक । कापटव भक्ति है इसकी यह-कापटवक। (क्षत्रिय) नकुल भक्ति है इसकी यह-नाकुलक। सहदेव है भक्ति इसकी यह-साहदेवक। साम्ब भक्ति है इसकी यह-साम्बक।
बहुल-वचन से यहां वुञ् प्रत्यय नहीं होता है- (गोत्र) पाणिन है भक्ति इसकी यह-पाणिनीय। (क्षत्रिय) पौरव राजा है भक्ति इसकी यह-पौरवीय। यहां वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से छ' प्रत्यय होता है।
सिद्धि-(१) ग्लौचुकायनकः। यहां प्रथमा-समर्थ, गोत्रवाची एवं भक्तिवाची 'ग्लुचुकायनि' शब्द से अस्य-इसकी अर्थ में इस सूत्र से बुञ्' प्रत्यय है। युवोरनाकौं' (७।१।१) से वु' के स्थान में अक आदेश, पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही 'औपगवक:' आदि।
(२) पाणिनीयः । यहां बहुल-वचन से प्रथमा-समर्थ, गोत्रवाचक एवं भक्तिवाची 'पाणिन' शब्द से षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में इस सूत्र से वुञ्' प्रत्यय नहीं होता है अपितु वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से शेष-अर्थ की विवक्षा में 'छ' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-पौरवीयः । जनपदवत्प्रत्ययविधिः- {भक्तिः} (१२) जनपदिनां जनपदवत् सर्वं जनपदेन
समानशब्दानां बहुवचने।१००। प०वि०-जनपदिनाम् ६।३ । जनपदवत् अव्ययपदम्, सर्वम् ११ जनपदेन ३१ समान-शब्दानाम् ६।३ बहुवचने ७।१।
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