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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
રૂ:૬ सिद्धि-(१) तौदेय: । तूदी+सु+ढक् । तौद्+एय। तौदेय+सु। तौदेयः।
यहां प्रथमा-समर्थ, अभिजनवाची तूदी' शब्द से अस्य=इसका अर्थ में इस सूत्र से ढक्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७/१२) से 'द' के स्थान में एय् आदेश होता किति च (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के ईकार का लोप होता है।
(२) शालातुरीयः । यहां 'शलातुर' शब्द से पूर्ववत् 'छण्' प्रत्यय है। (३) वार्मतेयः । यहां वर्मती' शब्द से पूर्ववत् 'ढञ्' प्रत्यय है। (४) कौचवार्य: । यहां कूचवार' शब्द से पूर्ववत् ज्य' प्रत्यय है। विशेष: (१) तूदी-पहचान अनिश्चित है।
(२) शलातुर-पाणिनि का जन्मस्थान, जो सिन्धु-कुम्भा संगम के कोने में ओहिंद से चार मील पश्चिम में था। यह स्थान इस समय लहुर कहलाता है।
(३) वर्मती-इसकी ठीक पहचान ज्ञात नहीं। हो सकता है यह बीनरान का पुराना नाम हो।
(४) कूचवार-यह चीनी तुर्किस्तान में उत्तरी तरिम उपत्यका का नाम था, जिसका अर्वाचीन नाम कूचा है। चीनी भाषा में आजकल इसे कूची कहते हैं (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ८५)। यथाविहितं प्रत्ययः- {भक्तिः }
(७) भक्तिः ।६५। प०वि०-भक्ति: १।१। अनु०-स:, अस्येति चानुवर्तते। अन्वय:-स प्रातिपदिकाद् अस्य यथाविहितं प्रत्ययो भक्तिः।
अर्थ:-स इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं भक्तिश्चेत् तद् भवति।
भज्यते सेव्यत इति भक्ति: 'स्त्रियां क्तिन्' (३ ।३।९४) इति कर्मणि क्तिन् प्रत्यय:।
उदा०-स्रुघ्नो भक्तिरस्य-सौज: । माथुरः । रौहितक: । राष्ट्रियः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(स:) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (भक्तिः) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह भक्ति (सेव्य) हो।
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