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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् भज्यते सेव्यते इति भक्ति: । यहां 'भज सेवायाम् (भ्वा०उ०) धातु से स्त्रियां क्तिन्' (३।३।९४) से कर्म कारक में क्तिन्' प्रत्यय है जिसकी सेवा की जाये उसे 'भक्ति' कहते हैं।
उदा०-जुन है भक्ति (सेव्य) इसकी यह-स्रौन। मथुरा है भक्ति इसकी यह-माथुर। रोहितक है भक्ति इसकी यह-रौहितक। राष्ट्र है भक्ति इसकी यह-राष्ट्रिय।
सिद्धि-स्रौनः । यहां प्रथमा-समर्थ, भक्तिवाची 'खून' शब्द से अस्य इसकी अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है। अत: प्राग्दीव्यतोऽण् (४।१।८३) से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-माथुरः, रौहितक, राष्ट्रियः। ठञ्
{भक्तिः (८) अचित्ताददेशकालाट्ठा।६६। प०वि०-अचित्तात् ५ ।१ अदेशकालात् ५।१ ठक् १।१।
स०-न विद्यते चित्तं यस्मिंस्तत्-अचित्तम्, तस्मात्-अचित्तात् (बहुव्रीहिः)। देशश्च कालश्च एतयो: समाहार:-देशकालम्, न देशकालमिति अदेशकालम्, तस्मात्-अदेशकालात् (समाहारद्वन्द्वगर्भितनञ्तत्पुरुषः) ।
अनु०-स:, अस्य, भक्तिरिति चानुवर्तते । अन्वय:-सोऽदेशकालाद् अचित्ताद् अस्य ठग् भक्तिः ।
अर्थ:-स इति प्रथमासमर्थाद् देशकालवर्जिताद् अचित्तवाचिन: प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे ठक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं भक्तिश्चेत् तद् भवति।
उदा०-अपूपा भक्तिरस्य-आपूपिकः। शष्कुल्यो भक्तिरस्यशाष्कुलिकः । पायसं भक्तिरस्य-पायसिक:।।
आर्यभाषाअर्थ-(स:) प्रथमा-समर्थ (अदेशकालात्) देश, काल से रहित (अचित्तात्) अचित्त (जड़) वाची प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है (भक्तिः) जो प्रथमा समर्थ है यदि वह भक्ति (सेवनीय पदार्थ) हो।
उदा०-अपूप हैं भक्ति (सेवनीय) है इसके यह-आपूपिक। अपूप मालपूआ। शष्कुलियाँ भक्ति हैं इसकी. यह-शाष्कुलिक। शष्कुली-पूरी। पायस है भक्ति इसकी यह-पायसिक। पायस-खीर।
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