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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) तक्षशिला-यह पूर्वी गंधार की प्रसिद्ध राजधानी थी और सिन्धु और विपाशा के बीच के सब नगरों में बड़ी और समृद्ध थी। पाटलिपुत्र, मथुरा और शाकल को-पुष्कलावती, कापिशी और बाल्हीक से मिलानेवाली उत्तरपथ नामक राजमार्ग पर तक्षशिला मुख्य व्यापारिक नगरी थी। पाणिनिकाल से हूणों के समय तक तक्षशिला का प्राधान्य बना रहा (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ८५)। ढक्+छण्+ढम्+यक- {अभिजनः} (६) तूदीशलातुरवर्मतीकूचवाराड्ढक्छण्ढग्यकः ।६४ ।
प०वि०-तूदी-शलातुर-वर्मती-कूचवारात ५।१ ढक्-छण्-ढञ्यक: १।३।
स०-तूदी च शलातुरश्च वर्मती च कूचवारश्च एतेषां समाहार:तूदीशलातुरवर्मतीकूचवारम्, तस्मात्- तूदीशलातुरवर्मतीकूचवारात् (समाहारद्वन्द्व:) । ढक् च छण् च ढञ् च यक् च ते ढक्छण्ढञ्यक: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-स:, अस्य, अभिजन इति चानुवर्तते ।
अन्वय:-स तूदीशलातुरवर्मतीकूचवाराद् अस्य ढक्छण्ढग्यकोऽभिजन:।
अर्थ:-स इति प्रथमासमर्थेभ्यस्तूदीशलातुरवर्मतीकूचवारेभ्य: प्रातिपदिकेभ्योऽस्येति षष्ठ्यर्थे यथासंख्यं ढक्छण्ढञ्यक: प्रत्यया भवन्ति, यत् प्रथमासमर्थमभिजनश्चेत् स भवति।
उदा०-(तूदी) तूदी अभिजनोऽस्य-तौदेय: (ढक्)। (शलातुरः) शलातुरोऽभिजनोऽस्य-शालातुरीय: (छण्) । (वर्मती) वर्मती अभिजनोऽस्यवार्मतयः (ढञ्)। (कूचवार:) कूचवारोऽभिजनोऽस्य-कौचवार्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (स:) प्रथमा-समर्थ (तूदी०कूचवारात्) तूदी, शलातुर, वर्मती, कूचवार प्रातिपदिकों से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में यथासंख्य (ढक्छण्ढव्यक:) ढक्, छण, ढञ्, यक् प्रत्यय होते हैं (अभिजन:) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह अभिजन हो।
उदा०-(तूदी) तूदी अभिजन है इसका यह-तौदेय (ढक्)। (शलातुर) शलातुर अभिजन है इसका यह-शालातुरीय (छण्)। (वर्मती) वर्मती अभिजन है इसका यह-वामतय (ढञ्)। (कूचवार) कूचवार अभिजन है इसका यह-कौचवार्य।
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