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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्) द्वितीया-समर्थ प्रातिपदिक से (गच्छति) 'जाता है' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (पथिदूतयोः) जो यह जाता है वह यदि पन्था=मार्ग वा दूत हो ।
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उदा० - स्रुघ्न नगर को जो जाता है वह स्रौघ्न पन्था (मार्ग) वा दूत । मथुरा नगरी को जो जाता है वह माथुर पन्था वा दूत । रोहितक नगर को जो जाता है वह - रौहितक पन्था वा दूत ।
सिद्धि-स्रौघ्नः । स्रुघ्न+अम्+अण् । स्रौघ्न् +अ । स्रौघ्न+सु । स्रौघ्नः ।
यहां द्वितीया-समर्थ' 'स्रुघ्न' प्रातिपदिक से गच्छति अर्थ में तथा पन्था एवं दूत अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है अत: 'प्राग्दीव्यतोऽण्' (४ |१।८३) से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - माथुर, रौहितक: ।
विशेषः सुघ्न नगर को देवदत्त आदि पुरुष जाता है, पन्था (मार्ग) नहीं किन्तु उपचार से यह कहा जाता है यह पन्था स्रुघ्न नगर को जाता है। अथवा- 'गम्लृ गतौँ' (भ्वा०प०) धातु से यहां प्राप्ति- अर्थक है। यह पन्था स्रुघ्न को प्राप्त कराता है।
अभिनिष्क्रामति- अर्थप्रत्ययविधिः
यथाविहितं प्रत्ययः
(१) अभिनिष्क्रामति द्वारम् । ८६ । प०वि०-अभिनिष्क्रामति क्रियापदम्, द्वारम् १।१ । अनु० - तदित्यनुवर्तते ।
अन्वयः- तत् प्रातिपदिकाद् अभिनिष्क्रामति यथाविहितं प्रत्ययो द्वारम् । अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अभिनिष्क्रामतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, यद् अभिनिष्क्रामति द्वारं चेत् तद् भवति । अभिमुख्येन निष्क्रामति = अभिनिष्क्रामति ।
उदा० - स्रुघ्नमभिनिष्क्रामति कान्यकुब्जद्वारम् - स्रौघ्नम् । मथुरामभिनिष्क्रामति दिल्लीनगरद्वारम् - माथुरम् । रोहितकमभिनिष्क्रामति प्राणिप्रस्थद्वारम् - रौहितकम् ।
आर्यभाषा: अर्थ- (तत्) द्वितीया-समर्थ प्रातिपदिक से (अभिनिष्क्रामति) 'अभिमुख निकलता है' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (द्वारम् ) जो अभिमुख निकलता है यदि वह द्वार हो ।
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