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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
अर्थ:-तत इति पञ्चमीसमर्थात् प्रातिपदिकात् प्रभवतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । प्रभवति = प्रकाशते, प्रथमत उपलभ्यते इत्यर्थः । उदा०-हिमवतः प्रभवति हैमवती गङ्गा । दरदः प्रभवति दारदी सिन्धुः ।
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आर्यभाषाः अर्थ- (ततः) पञ्चमी - समर्थ प्रातिपदिक से (प्रभवति) 'प्रथम से उपलब्ध होता है' इस अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है।
उदा० - हिमवान् (हिमालय) से जो प्रथमतः उपलब्ध होती है (निकलती है) वह हैमवती गंगा । दरद् से जो प्रथमतः उपलब्ध होती है (निकलती है) वह दारदी सिन्धु नदी ।
सिद्धि-हैमवती। हिमवत् + ङसि + अण् । हैमवत् +अ । हैमवत+ ङीप् । हेमवत्+ई। हैमवती + सु । हैमवती ।
यहां पञ्चमी - समर्थ 'हिमवत्' शब्द से प्रभवति अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है, अत: 'प्राग्दीव्यतोऽण्' (४।१।८३) से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय होता है। 'तद्धितेष्वचामादेः' (७।२1११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है । स्त्रीत्व - विवक्षा में 'टिढाणञ्०' (४।१।१५) से ङीप् प्रत्यय होता है । ऐसे ही 'दरद्' शब्द से - दारदी ।
विशेष: सिंधु नदी कैलास के पश्चिमी तटान्त से निकलकर काश्मीर को दो भागों में बांटती हुई गिलगिटचिलास (प्राचीन दरद् देश) में घुसकर दक्षिणवाहिनी होती हुई दरद् के चरणों से पहली बार मैदान में उतरती है। इस भौगोलिक सच्चाई को जानकर भारतवासी सिन्धु को 'दारदी सिन्धु: ' कहते थे (पाणिनीकालीन भारतवर्ष पृ० ५०) ।
ञ्यः
(२) विदूराञ्यः । ८४ ।
प०वि०-विदूरात् ५ ।१ ञ्यः १।१। अनु० - ततः प्रभवतीति चानुवर्तते । अन्वयः- ततो विदूरात् प्रभवति ञ्यः ।
अर्थः-तत इति पञ्चमीसमर्थाद् विदूरात् प्रातिपदिकात् प्रभवतीत्य
स्मिन्नर्थे ञ्यः प्रत्ययो भवति ।
उदा० - विदूरात् प्रभवतीति वैदूर्यो मणिः ।
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