________________
चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
३७५
उदा०
०- औपगवानामङ्क:- औपगवकः । कापटवकः । नाडायनकः । चारायणकः। एवम्-औपगवेभ्य आगतम् - औपगवकम् । कापटवकम् । नाडायनकम् । चारायणकम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (ततः) पञ्चमी - समर्थ (गोत्रात्) गोत्रविशेषवाची प्रातिपदिक से (आगत:) आगत अर्थ में (अङ्कवत् ) अङ्क अर्थ के समान प्रत्यय होता है।
व्याकरणशास्त्र में अपत्य-अधिकार से अन्यत्र लौकिक गोत्र अर्थात् अपत्यमात्र का ही ग्रहण किया जाता है 'अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्' (४ । १ । १६२ ) इस पारिभाषिक गोत्र का नहीं और यहां 'अङ्कवत्' कथन 'तस्येदम्' ( ४ | ३ | १२० ) इस सामान्य अर्थ लक्षित करता है न कि 'सङ्घाङ्कलक्षणेष्वञ्यञिञामण्' (४ | ३ | १२७ ) से अङ्क अर्थ में विहित 'अण्' प्रत्यय को; क्योंकि यह 'अण्' प्रत्यय गोत्रवाची से विहित नहीं किया गया है । 'गोत्रचरणाद् वुञ्' (४ | ३ | १२६ ) से गोत्रवाची प्रातिपदिक से 'तस्य इदम्' अर्थ में 'वुञ्' प्रत्यय का विधान किया गया है, अतः यहां अङ्कवत् कहने से 'वुञ्' प्रत्यय का ही ग्रहण किया जाता है।
उदा०-औपगव-उपगु के पुत्रों का अङ्क (चिह्न) - औपगवक। कापटव= कपटु के पुत्रों का अङ्क-कापटवक । नाडायन=नड के पुत्रों का अङ्क- नाडायनक। चारायण=चर के पुत्रों का अङ्क- चारायणक। इसी प्रकार - औपगव-उपगु के पुत्रों से आया हुआ - औपगवक । कापटव= कपटु के पुत्रों से आया हुआ - कापटवक । नाडायन=नड के पुत्रों से आया हुआ- नाडायनक। चारायण = चर के पुत्रों से आया हुआ चारायणक ।
सिद्धि - औपगवक: । औपगव + ङसि + वुञ् । औपगव् +अक । औपगवक+सु । औपगवकः ।
यहां पञ्चमी-समर्थ, गोत्रवाची 'औपगव' शब्द से आगत अर्थ में इस सूत्र से अङ्कवत् प्रत्ययविधि का कथन किया गया है। अतः 'गोत्रचरणाद् वुञ् ' ( ४ | ३ | १२६ ) से अङ्कवत् 'वुञ्' प्रत्यय होता है। युवोरनाक' (७ 1१1१) से 'वु' के स्थान में 'अक' आदेश 'तद्धितेष्वचामादेः' (७ 1२ 1११७) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि और 'यस्येति च ' (६/४/१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही 'कापटवक' आदि ।
रूप्य:
(८) हेतुमनुष्येभ्योऽन्यतरस्यां रूप्यः । ८१ ।
प०वि० - हेतु मनुष्येभ्यः ५ । ३ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् रूप्यः १ । १ । स०-हेतवश्च मनुष्याश्च ते हेतुमनुष्याः, तेभ्यः - हेतुमनुष्येभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org