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________________ ३७० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां षष्ठी/सप्तमी-समर्थ व्याख्यातव्य-नामवाची 'ऋगयन' शब्द से व्याख्यान और भव अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-पादव्याख्यान: आदि। आगतार्थप्रत्ययप्रकरणम् यथाविहितं प्रत्ययः (१) तत आगतः७४। प०वि०-तत: पञ्चम्यर्थेऽव्ययपदम्, आगत: १।१। अन्वय:-तत: प्रातिपदिकाद् आगतो यथाविहितं प्रत्ययः । अर्थ:- तत इति पञ्चमी-समर्थात् प्रातिपदिकाद् आगत इत्यस्मिन्नर्थे यथविहितं प्रत्ययो भवति। उदा०-स्रुघ्नादागत: स्रौन: । माथुर:। रौहितक: । राष्ट्रियः । आर्यभाषा: अर्थ-(तत:) पञ्चमी-समर्थ प्रातिपदिक से (आगत:) आगत अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। उदा०-त्रुघ्न नगर से आया हुआ-स्रौन। मथुरा नगरी से आया हुआ-माथुर । रोहितक नगर से आया हुआ-रौहितक। राष्ट्र से आया हुआ-राष्ट्रिय । सिद्धि-सौनः । यहां पञ्चमी-समर्थ त्रुघ्न' शब्द से आगत अर्थ में प्राग्दीव्यतोऽण् (४।१।८३) से यथाविहित अण् प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही माथुरः' आदि। ठक (२) ठगायस्थानेभ्यः ।७५ | प०वि०-ठक ११ आय-स्थानेभ्य: ५।३ । स०-आयस्य स्थानानीति आयस्थानानि, तेभ्य:-आयस्थानेभ्य: (षष्ठीतत्पुरुषः)। अनु०-तत:, आगत इति चानुवर्तते । अन्वय:-तत आयस्थानेभ्य आगतष्ठक। अर्थ:-तत इति पञ्चमीसमर्थेभ्य आयस्थानवाचिभ्य: प्रातिपदिकेभ्य आगत इत्यस्मिन्नर्थे ठक् प्रत्ययो भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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