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________________ चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः ३५१ यूथ । उदकात्संज्ञायाम्।। न्याय। वंश। अनुवंश। विश। काल। अप्। आकाश। इति दिगादयः ।। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (दिगादिभ्यः) दिक्-- दि प्रातिपदिकों से (भव:) भव अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है। उदा०-दिक्-दिशा में होनेवाला-दिश्य । वर्ग में होनेवाला-वर्य। वर्ग=पार्टी, इत्यादि। सिद्धि-दिश्यम् । दिशा+डि+यत् । दिश्+य । दिश्य+सु। दिश्यम्। यहां सप्तमी-समर्थ दिश्' शब्द से भव अर्थ में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। ऐसे ही-वर्यम्। यत् (३) शरीरावयवाच्च।५५ ।। प०वि०-शरीर-अवयवात् ५।१ च अव्ययपदम्। स०-शरीरस्य अवयवमिति शरीरावयवम्, तस्मात्-शरीरावयवात् (षष्ठीतत्पुरुषः)। अनु०-तत्र, भव:, यदिति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र शरीरावयवाच्च भवो यत्। अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थाच्छरीरावयववाचिन: प्रातिपदिकाच्च भव इत्यस्मिन्नर्थे यत् प्रत्ययो भवति। उदा०-दन्तेषु भवं दन्त्यम् । कर्णयोर्भवं कर्ण्यम् । ओष्ठयोर्भवम् ओष्ठ्य म्। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (शरीरावयवात) शरीरअवयववाची प्रातिपदिक से (च) भी (भव:) भव अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है। उदा०-दांतों में होनेवाला-दन्त्य। कानों में होनेवाला-कर्ण्य। ओष्ठों पर होनेवाला-ओष्ठ्य। सिद्धि-दन्त्यम् । दन्त+सुप्+यत् । दन्त्+य । दन्त्य+सु। दन्त्यम्। यहां सप्तमी-समर्थ, शरीर अवयववाची ‘दन्त' शब्द से भव अर्थ में इस सूत्र से 'यत्' प्रत्यय है। ऐसे ही-कर्ण्यम्, ओष्ठ्यम् । ढश् (४) दृतिकुक्षिकलशिवस्त्यस्त्यहे।५६। प०वि०-दृति-कुक्षि-कलशि-वस्ति-अस्ति-अहे: ५।१ ढन् १।१। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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