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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थेभ्य: कालविशेषवाचिभ्य: प्रातिपदिकेभ्य: साधुपुष्प्यत्पच्यमानेष्वर्थेषु यथाविहितं प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(साधुः) हेमन्ते साधु:-हैमन: प्राकारः। शिशिरे साधु: शैशिरमनुलेपनम्। (पुष्यन्) वसन्ते पुष्प्यन्तीति वासन्त्य: कुन्दलताः । ग्रीष्मे पुष्प्यन्तीति ग्रैषम्य: पाटला: । (पच्यमान:) शरदि पच्यन्ते इति शारदा: शालय: । ग्रीष्मे पच्यन्ते इति ग्रैष्मा यवाः।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से (साधुपुष्प्यत्पच्यमानेषु) साधु, पुष्प्यन्, पच्यमान अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होता है।
उदा०-(साधु) हेमन्त ऋतु में साधु-ठीक-हैमन प्राकार परकोटा (चार दीवारी)। शिशिर ऋतु में साधु-ठीक-शैशिर अनुलोपन (तैल-मर्दन आदि)। (पुष्यन्) वसन्त ऋतु में पुष्पित होनेवाली-वासन्ती कुन्दलतायें (चमेली)। ग्रीष्म ऋतु में पुष्पित होनेवाली-ग्रैष्मी पाटला (पाढर का वृक्ष)। (पच्यमान) शरद् ऋतु में पकनेवाले-शारद शालि (चावल)। ग्रीष्म ऋतु में पकनेवाले-गृष्म यव (जौ)।
सिद्धि-(१) हैमनः । यहां सप्तमी-समर्थ कालविशेषवाची हमन्त' शब्द से साधु अर्थ में सर्वत्राण च तलोपश्च' (४।३।२२) से यथाविहित 'अण्' प्रत्यय और तकार का लोप होता है। सिद्धि पूर्ववत् है।
(२) शैशिरम् । यहां सप्तमी-समर्थ कालविशेषवाची 'शिशिर' शब्द से सन्धि अर्थ में सन्धिवेलावृतुनक्षत्रेभ्योऽण् (४।३।१६) से यथाविहित अण्' प्रत्यय है। सिद्धि पूर्ववत् है।
(३) वासन्ती। यहां सप्तमी-समर्थ, कालविशेषवाची वसन्त' शब्द से पुष्प्यन् अर्थ में पूर्ववत् यथाविहित ऋतु-अण्' प्रत्यय है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'टिड्ढाण' (४।१।१५) से डीप् प्रत्यय होता है। ऐसे ही 'ग्रीष्म' शब्द से-प्रैष्मी।
(४) शारद: । यहां सप्तमी-समर्थ, कालविशेषवाची 'शरद्' शब्द से पच्यमान अर्थ में पूर्ववत् यथाविहित ऋतु-अण्' प्रत्यय है। ऐसे ही ग्रीष्म' शब्द से ग्रैष्मः ।
उप्तार्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः
(१) उप्ते च ४४। प०वि०-उप्ते ७१ च अव्ययपदम्।
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