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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः सिद्धि-लौनः' आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् है।
विशेष: यहां सम्भूत शब्द का अर्थ सम्भव हो सकना अर्थ है, उत्पत्ति वा सत्ता अर्थ नहीं क्योंकि जात और भव अर्थ से उत्पत्ति वा सत्ता अर्थ का कथन किया गया है। ढञ्
(२) कोशाड्ढञ्।४२। प०वि०-कोशात् ५।१ ढञ् १।१ । अनु०-तत्र, सम्भूते इति चानुवर्तते। अन्वयः-तत्र कोशात् सम्भूते ढञ् ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थात् कोशात् प्रातिपदिकात् सम्भूतेऽर्थे ढञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-कोशे सम्भूतं कौशेयं वस्त्रम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (कोशात्) कोश प्रातिपदिक से (सम्भूते) सम्भूत अर्थ में (ढ) ढञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-कोश (खोलविशेष) में सम्भूत कौशेयरेशम । कौशेय वस्त्र रेशमी कपड़ा। सिद्धि-कौशेयम् । कोश+कि+ढन् । कौश्+एय। कौशेय+सु। कौशेयम् ।
यहां सप्तमी-समर्थ कोश' शब्द से सम्भूत अर्थ में इस सूत्र से ढञ्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'द' के स्थान में 'एय्' आदेश होता है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है।
विशेष: कोश (खोलविशेष) में कृमिविशेष सम्भूत होता है, वस्त्र नहीं किन्तु रूढिवश कौशेय' पद रेशमीवस्त्र अर्थ का वाचक है, कृमि अर्थ का नहीं।
साध्वाद्यर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः
(१) कालात् साधुपुष्प्यत्पच्यमानेषु।४३। प०वि०-कालात् ५।१ साधु-पुष्प्यत्-पच्यमानेषु ७।३ ।
स०-साधुश्च पुष्प्यश्च पच्यमानश्च ते साधुपुष्प्यत्पच्यमाना:, तेषु-साधुपुष्प्यत्पच्यमानेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-तत्र इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तत्र कालात् साधुपुष्प्यत्पच्यमानेषु यथाविहितं प्रत्ययः ।
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