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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (उपजानूपकर्णोपनीवे:) उपजानु, उपकर्ण, उपनीवि प्रातिपदिकों से (प्रायभव:) प्रायभव अर्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-(उपजानु) उपजानु-घुटने के अधोभाग में प्राय: धारण किया जानेवाला आभूषण आदि-औपजानुक। (उपकर्ण) उपकर्ण-कान के अधोभाग में प्राय: धारण किया जानेवाला आभूषण आदि-औपकर्णिक। (उपनीवि) उपनीवि-कटिभाग में प्राय: धारण किया जानेवाला आभूषण एवं पटबन्ध आदि-औपनीविक।
सिद्धि-(१) औपजानुकः । उपजानु+डि+ठक् । औपजानु+क। औपजानुकः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'उपजानु' शब्द से प्रायभव अर्थ में इस सूत्र से ठक्' प्रत्यय है। इसुक्तान्तात् कः' (७।३५१) से ह' के स्थान में क्' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-औपकर्णिकः, औपनीविकः ।
विशेष: उपजानु' आदि पदों में पूर्वोक्त अव्ययीभाव समास है। 'अव्ययीभावश्च (१।१।४१) से अव्ययीभाव समास के अव्यय होने से 'अव्ययादाप्सुपः' (२।४।८२) से सुप्' प्रत्यय का लुक हो जाता है अत: यहां सप्तमी-विभक्ति का दर्शन नहीं होता है।
सम्भूतार्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्यय:
(१) सम्भूते।४१। प०वि०-सम्भूते ७१। अनु०-तत्र इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तत्र प्रातिपदिकात् सम्भूते यथाविहितं प्रत्ययः ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थात् प्रातिपदिकात् सम्भूतेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति।
उदा०-जुने सम्भवतीति स्रौनः । माथुरः । रौहितक: । राष्ट्रियः ।
अवक्तृप्ति: प्रमाणानतिरेकश्च सम्भवत्यर्थोऽत्र गृह्यते, नोत्पत्ति:, सत्ता वा जातभवाभ्यामर्थाभ्यां गतार्थत्वात् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ प्रातिपदिक से (सम्भूते) सम्भव अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है।
- उदा०-जो सुघ्न में सम्भव है वह-सौन। मथुरा में जो सम्भव है वह-माधुर। रोहितक में जो सम्भव है वह-रोहितक। राष्ट्र में जो सम्भव है वह-राष्ट्रिय।
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