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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची (प्रावृषः) प्रावृट् प्रातिपदिक से (शेष) शेष अर्थों में (एण्य:) एण्य प्रत्यय होता है।
उदा०-प्रावृषि भव: प्रावृषेण्यो बलाहकः । प्रावृट् वर्षा ऋतु में होनेवाला-प्रावृषेण्य बादल।
सिद्धि-प्रावृषेण्यः । प्रावृष्+डि+एण्य: । प्रावृषेण्य+सु । प्रावृषेण्यः ।
यहां सप्तमी-समर्थ प्रावृट्' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'एण्य' प्रत्यय है। ठक्
(७२) वर्षाभ्यष्ठक।१८। प०वि०-वर्षाभ्य: ५।३ ठक् १।१। अनु०-शेषे, कालादिति चानुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०कालाद् वर्षाभ्य: शेषे ठक् ।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थात् कालविशेषवाचिनो वर्षाशब्दात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु ठक् प्रत्ययो भवति।
उदा०-वर्षासु भवं वार्षिकं वास: । वार्षिकम् अनुलेपनम्।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची (वर्षाभ्य:) वर्षा प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-वर्षास भवं वार्षिकं वास: । वर्षा ऋतु में ठीक रहनेवाला-वार्षिक वस्त्र। वार्षिकम् अनुलेपनम् । वार्षिक अनुलेपन (तैल आदि शरीर में लगाना)।
सिद्धि-वार्षिकम् । वर्षा+सुप्+ठक् । वार्ष+इक। वाषिक+सु। वार्षिकम् ।
यहां सप्तमी--समर्थ 'वर्षा' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से ठक' प्रत्यय है। यहां 'कालात् साधुपुष्यत्पच्यमानेषु' (४।३।४३) से कालविशेषवाची 'वर्षा' शब्द से शैषिक साधु-अर्थ में ठक्' प्रत्यय किया गया है। ठस्येकः' (७।३।५०) से ह' के स्थान में इक्' आदेश और 'किति च (७/२।११८) के अंग को आदिवृद्धि होती है।
विशेष: (१) वर्षा शब्द से कालाट्ठ' (४।३।११) से ठम्' प्रत्यय करने पर भी वार्षिक' पद बनता है किन्तु वह नित्यार्दिनित्यम्' (६।१।१९४) से आधुदात्त होगा। यह ठक्-प्रत्ययान्त वार्षिक' पद 'आधुदात्तश्च' (३।१।३) से प्रत्यय को आधुदात्त होकर मध्योदात्त है-वार्षिकम् ।
(२) वर्षा शब्द 'अप्सुमनस्समासिकतावर्षाणां बहुत्वं च' (लिङ्गा० १।२९) से बहुवचनान्त और स्त्रीलिङ्ग है। अत: इस सूत्र में वर्षाभ्यः' पद बहुवचन में प्रयुक्त किया है।
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