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________________ चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः ३१६ उदा०-(सन्धिवेलादि) सन्धिवेलायां भवं सान्धिवेलम् । सन्धि-वेला में होनेवाला-साधिवेल । सन्ध्यायां भवं सान्ध्यम् । सन्ध्याकाल में होनेवाले-सान्ध्य। (ऋत) प्रीष्मे भवं ग्रैष्मम् । ग्रीष्म ऋतु में होनेवाला-गैष्म । शिशिरे भवं शैशिरम् । शिशिर ऋतु में होनेवाला-शैशिर। (नक्षत्र) तिष्ये भवं तैषम् । तिष्य नक्षत्र में होनेवाला-तैष। पुष्ये भवं पौषम् । पुष्य नक्षत्र में होनेवाला-पौष । सिद्धि-(१) सान्धिवेलम् । सन्धिवेला+डि+अण् । सान्धिवेल+अ। सान्धिवेल+सु। सान्धिवेलम्। यहां सप्तमी-समर्थ सन्धिवेला' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग के आकार को का लोप होता है। ऐसे ही-सान्ध्यम्, ग्रैष्मम्, शैशिरम् । (२) तैषम् । तिष्य+टा+अण् । तिष्य+० । तिष्य+डि+अण् । तिष्य्+अ। तैष्+अ । तैष+सु । तैषम्। यहां प्रथम नक्षत्रवाची तिष्य' शब्द से 'नक्षत्रेण युक्तः कालः' (४।२।३) से 'अण्' प्रत्यय होता है और उसका लुबविशेषे (४।२।४) से लुप हो जाता है। तत्पश्चात् उस तिष्य' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवद्धि और अकार का लोप होता है। वा० तिष्यपुष्ययोर्नक्षत्राणि यलोप:' (६।४।१४९) से य्' का लोप होता है। ऐसे ही-पौषम्।। विशेष: (१) भारतवर्ष में ये छ: ऋतु होती हैं-चैत्र-वैशाख वसन्त । ज्येष्ठ-आषाढ-ग्रीष्म। श्रावण-भाद्रपद-वर्षा। आश्विन-कार्तिक-शरद् । मार्गशीर्ष-पौष= हेमन्त । माघ-फाल्गुन-शिशिर। (२) २८ नक्षत्रों का विवरण ‘फल्गुनीप्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे' (१।२।६०) के प्रवचन में देख लेवें। एण्यः (७१) प्रावृष एण्यः ।१७। प०वि०-प्रावृष: ५।१ एण्य: १।१। अनु०-शेषे, कालाद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०कालात् प्रावृष: शेषे एण्यः । अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थात् कालविशेषवाचिन: प्रावृष: प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु एण्य: प्रत्ययो भवति । उदा०-प्रावृषि भव: प्रावृषेण्यो बलाहकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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