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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनु० - शेषे देशे इति चानुवर्तते । अन्वयः-यथासम्भव०मद्रवृजिभ्यां शेषे कन् । अर्थः-यथासम्भवविभक्तिसमर्थाभ्यां देशवाचिभ्यां मद्रवृजिभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां शेषेष्वर्थेषु कन् प्रत्ययो भवति । उदा० - ( मद्रः ) मद्रेषु भवो मद्रक: । ( वृजि: ) वृजिषु भवो वृजिक: । आर्यभाषाः अर्थ-यथासम्भव- विभक्ति - समर्थ (देशे ) देशवाची ( मद्रवृज्योः) मद्र, वृजि प्रातिपदिकों से (शेषे) शेष अर्थों में (कन्) कन् प्रत्यय होता है । २६२ उदा० ( मद्र) मद्रेषु भवो मद्रक: । मद्र देश में रहनेवाला - मद्रक। ( वृजि) वृजिषु भवो वृजिक: । वृजि देश में रहनेवाला - वृजिक । सिद्धि - मद्रक: । मद्र + ङि+कन् । मद्र+क। मद्रक+सु। मद्रकः। यहां 'मद्र' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'कन्' प्रत्यय है । ऐसे ही - वृजिक: । विशेष - (१) मद्र-मद्र जनपद प्राचीन वाहीक का उत्तरी भाग था । इसकी राजधानी शाकल (वर्तमान- स्यालकोट) थी जो आपगा (वर्तमान- अयक) नदी पर स्थित है। यह छोटी नदी जम्मू की पहाड़ियों से निकलकर स्यालकोट के पास से होती हुई वर्षा ऋतु में चनाब से मिलती है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ६७ ) । (२) वृजि - बिहार प्रान्त में गंगा के उत्तर का प्रदेश वृजि कहलाता था, जहां विदेह लिच्छवियों का राज्य था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ७४) । अण् (४१) कोपधादण् | १३१ । प०वि०-क उपधात् ५ ।१ अण् १ ।१ । स०-क उपधायां यस्य तत् कोपधम् तस्मात् - कोपधात् ( बहुव्रीहि: ) । अनु० - शेषे, देशे इति चानुवर्तते । अन्वयः - यथासम्भव०देशे कोपधात् शेषेऽण् । अर्थः- यथासम्भवविभक्तिसमर्थाद् देशवाचिनः ककारोपधात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु अण् प्रत्ययो भवति । उदा०-ऋषिकेषु जात आर्षिकः । महिषिकेषु जातो माहिषिकः । इक्ष्वाकुषु जात ऐक्ष्वाकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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