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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
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खंभात की खाड़ी के मस्तक पर साबरमती ( श्वभ्रमती) की धारा समुद्र में मिली है उसकी दाहिनी ओर का समुद्र-तट दारुकच्छ और बाई ओर का पिपलीकच्छ ह (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ६६-६७) ।
(२) विभुजाग्नि, काण्डाग्नि-विभुजाग्नि कच्छ प्रदेश का भुज ज्ञात होता है और काण्डाग्नि कंडला बन्दरगाह के उत्तर-पूर्व में तपता हुआ रेगिस्तान। ये दोनों नाम कच्छ के छोटे रन्न और बड़े रन्न (इरिन) ही हो सकते हैं (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ६७ ) ।
(३) इन्द्रवक्त्र, सिन्धुवक्त्र - सिन्ध प्रान्त का प्रदेश सिन्धुवक्त्र और बलोचिस्तान का प्रदेश इन्द्रवक्त्र कहलाता था । सिन्धुवक्त्र प्रदेश में खेती सिन्ध नदी पर निर्भर थी और इन्द्रवक्त्र में वर्षा पर । पहला प्रदेश नदीमातृक था और दूसरा देवमातृक । सभा - पर्व में इन दोनों प्रदेशों का स्पष्ट वर्णन एक साथ आया है :
इन्द्रकृष्यैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखैः ।
समुद्रनिष्कुटे जाताः पारेसिन्धु च मानवा: । ५१ ।११ । (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ७९ )
(४) बहुगर्त, चक्रगर्त- ये दोनों पुराने नाम जान पड़ते हैं । बहुगर्त सम्भवतः साबरमती (प्राचीन श्वभ्रमती) के काठे का नाम था, जिसके नाम का 'श्वभ्र' शब्द गड्ढे का पर्यायवाची है । चक्रगर्त संभवत: प्रभासक्षेत्र में स्थित चक्रतीर्थ की संज्ञा थी (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ८० ) ।
वुञ् -
(३६) धूमादिभ्यश्च । १२६ ।
प०वि० - धूम - आदिभ्यः ५ । ३ च अव्ययपदम् ।
सo - धूम आदिर्येषां ते धूमादय:, तेभ्य: - धूमादिभ्यः (बहुव्रीहि: ) । अनु० - शेषे, देशे, वुञ् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - यथासम्भव०देशे धूमादिभ्यः शेषे वुञ् ।
अर्थः-यथासम्भवविभक्तिसमर्थेभ्यो देशवाचिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः शेषेष्वर्थेषु वुञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा० - धूमे जातो धौमक: । खण्डे जात: खाण्डकः ।
धूम। खण्ड। खडण्ड। शशादन । आर्जुनाद । दाण्डायनस्थली ।' माहकस्थली। घोषस्थली । माषस्थली । राजस्थली। राजगृह। सत्रासाह। भक्षास्थली। भद्रकूल। गर्त्तकूल । आञ्जीकूल । द्वयाहाव । त्र्याहाव। संहीय ।
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