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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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यहां प्रथम पूर्व और शाला सुबन्तों का 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे चं' (२1१142) से तद्धितार्थ में कर्मधारय तत्पुरुष समास होता है । तत्पश्चात् सप्तमी - समर्थ, दिशावाची पूर्वपदवाले 'पूर्वशाला' शब्द से 'भव' शेष अर्थ में इस सूत्र से 'ञ' प्रत्यय होता है। 'तद्धितेष्वचामादेः' (७ ।२ । ११७) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च' (६ |४,१४८) अंग के आकार का लोप होता है। ऐसे ही- दाक्षिणशाल:, आपरशाल: ।
अञ्
(१७) मद्रेभ्योऽञ् । १०७ ।
प०वि० - मद्रेभ्य: ५।३ अञ् १।१ । अनु० - शेषे, दिक्पूर्वपदाद् इति चानुवर्तते । अन्वयः-यथासम्भव०दिक्पूर्वपदेभ्यो मद्रेभ्यः शेषेऽञ् । अर्थः-यथासम्भवविभक्तिसमर्थाद् दिक्पूर्वपदाद् मद्रशब्दात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु अन् प्रत्ययो भवति ।
उदा० - पूर्वमद्रेषु भवः पौर्वमद्रः । अपरमद्रेषु भव आपरमद्रः । आर्यभाषाः अर्थ - यथासम्भव विभक्ति - समर्थ (दिक्पूर्वपदात् ) दिशावाची पूर्वपदवाले ( मद्रेभ्यः) मद्र शब्द से ( शेषे ) शेष अर्थों में (अञ्) अञ् प्रत्यय होता है ।
उदा० - पूर्वमद्रेषु भव: पौर्वमद्र: । पूर्व दिशा के मद्र जनपद में रहनेवाला-पौर्वमद्र। अपरमद्रेषु भव आपरमद्रः । पश्चिम दिशा के मद्र में रहनेवाला - आपरमद्र ।
सिद्धि - पौर्वमद्र: । पूर्व+मद्र । पूर्वमद्र+सुप्+अञ् । पौर्वमद्र+अ । पौर्वमद्र+सु । पौर्वमद्रः । यहां प्रथम पूर्व और मद्र सुबन्तों का 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' (२ 12 1५१) से तद्धितार्थ में कर्मधारय समास होता है। तत्पश्चात् सप्तमी - समर्थ, दिशावाची पूर्वपदवाले 'पूर्वमद्र' शब्द से 'भव' शेष अर्थ में इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय है । 'दिशोऽमद्राणाम् (७ 1३ 1१३) से जनपदवाची 'मद्र' शब्द की उत्तरपद वृद्धि का प्रतिषेध होने से पूर्ववत् 'तद्धितेष्वचामादे:' ( ७ । २ । ११७ ) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही - आपरमद्रः ।
विशेष - (१) जनपदवाची शब्दों का बहुवचन में प्रयोग किया जाता है अतः 'मद्रेभ्यः' यहां 'मद्र' शब्द का बहुवचन में निर्देश किया गया है।
(२) रावी और चनाव नदी के बीच का देश 'मद्र' जनपद कहाता था।
अञ्
(१८) उदीच्यग्रामाच्च बह्वचोऽन्तोदात्तात् । १०८ । प०वि० - उदीच्य-ग्रामात् ५।१ च अव्ययपदम् बह्वच: ५।१ अन्तोदात्तात् ५ | १ |
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