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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-रङ्कोरागतो राङ्कवो गौः (अण्)। राकवायणो गौ: (ष्फक्)।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव विभक्ति-समर्थ (रकोः) रङ्कु प्रातिपदिक से (शेष) शेष अर्थों में (अण्) अण् (च) और (एफक्) ष्फक् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-रकोरागतो राङ्कवो गौ: (अण्) । राङ्कवायणो गौ: (ष्फक्) । रकु नामक जनपद से आया हुआ प्रसिद्ध बैल-राकव वा राड्कवायण।।
सिद्धि-(१) राकव: । रकु+डसि+अण्। राकवो+अ। राकव+सु। राकवः ।
यहां पञ्चमी-समर्थ 'रकु' शब्द से 'आगत:' शेष अर्थ में इस सूत्र से 'अण्’ प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि, ओर्गणः' (६।४।१४६) से गुण और एचोऽयवायवः' (६।१।७५) से 'अव्' आदेश होता है।
(२) राङ्कवायणः । रकु+डसि+ष्फक्। राको+आयन। राड्कवायन+सु । राकवायणः ।
___ यहां पञ्चमी-समर्थ 'रकु' शब्द से पूर्ववत् 'फक्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से फ्’ के स्थान में 'आयन्-आदेश होता है। अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष-(१) रंकु जनपद की पहचान निश्चित नहीं। सम्भवत: यह अलकनन्दा और पिंडर के पूर्व का प्रदेश था, जहां मल्ला-जुहार और मल्लादानपुर की भाषा रंका' कहाती है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ७०)।
(२) संस्कृत भाषा में गौः' शब्द पुंलिङ्ग में बैल का वाचक और स्त्रीलिङ्ग में गाय का वाचक होता है। यहां गौः' शब्द बैल का वाचक है।
(३) यहां 'अमनुष्य' कहने से मनुष्य वर्जित बैल आदि प्राणी का ग्रहण किया जाता है। यत्
(१०) धुप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्।१००। प०वि०-धु-प्राक्-अपाक्-उदक्-प्रतीच: ५।१ यत् १।१।
स०-द्योश्च प्राक् च अपाक् च उदक् च प्रत्यक् च एतेषां समाहार:द्युप्रागपागुदक्प्रत्यक्, तस्मात्-धुप्रागपागुदक्प्रतीच: (समाहारद्वन्द्वः)।
अनु०-शेषे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०द्युप्रागपागुदक्प्रतीच: शेषे यत्।
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