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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-कात्त्रेयक: । कत्त्रि+डि+ढकञ् । कात्त्र+एय् अक। कात्त्रेयक+सु । कात्त्रेयकः ।
यहां सप्तमी-समर्थ कत्त्रि' शब्द से भव-आदि शेष अर्थों में इस सूत्र से ढकञ्' प्रत्यय है। आयनेय०' (७/१२) से 'द' के स्थान में 'एय' आदेश होता है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।१४८) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-औम्भेयकः ।
विशेष-कृत्सितास्त्रय इति कत्त्रयः' यहां को: कत तत्पुरुषेऽचि' (६।३।१००) से इस सूत्रोक्त निपातन से 'कु' के स्थान में 'कत्' आदेश होता है। कत्त्रि-तीन कुत्सित ।
स्वामी विरजानन्द सरस्वती कहा करते थे- सूत्रक्रम तोड़कर अध्ययन मार्ग बिगाड़नेवाले भट्टोजि आदि प्रथम कुत्सित हैं। उनके ग्रन्थ दूसरे कुत्सित ग्रन्थ हैं। उन ग्रन्थों को पढ़ने-पढ़ानेहारे तीसरे कुत्सित हैं। ये तीनों मिलकर कुत्सितत्रय अथवा कत्रि' कहाते हैं।" ढकञ्(५) कुलकुक्षिग्रीवाभ्यः श्वास्थालङ्कारेषु।।६५ ।। प०वि०-कुल-कुक्षि-ग्रीवाभ्य: ५।३ श्व-असि-अलङ्कारेषु ७।३ ।
स०-कुलं च कुक्षिश्च ग्रीवा च ता:-कुलकुक्षिग्रीवा:, ताभ्य:कुलकुक्षिग्रीवाभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। श्वा च असिश्च अलङ्कारश्च ते-श्वास्यलङ्कारा: तेषु श्वास्यलङ्कारेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-शेषे, ढकञ् इति चानुवर्तते।
अन्वय:-यथासम्भव०कुलकुक्षिग्रीवाभ्य: प्रातिपदिकेभ्य: शेषेष्वर्थेषु ढकञ् प्रत्ययो भवति, यथासंख्यं श्वास्यलकारेष्वभिधेयेषु।
उदा०- (कुलम्) कुले भव: कौलेयक: श्वा । (कुक्षि:) कुक्षौ भव: कौक्षयकोऽसि: । (ग्रीवा) ग्रीवायां भवो ग्रैवेयकोऽलङ्कारः ।
आर्यभाषा: अर्थ:-यथासम्भव विभक्ति-समर्थ (कुलकुक्षिग्रीवाभ्य:) कुल, कुक्षि, ग्रीवा प्रातिपदिकों से (शेषे) शेष अर्थों में (ढकञ्) ढकञ् प्रत्यय होता है, (श्वास्यलङ्कारेषु) यदि वहां यथासंख्य श्वा=कुत्ता, असि-तलवार, अलङ्कार जेवर अर्थ अभिधेय हो।
उदा०- (कुल) कुले भव: कौलेयक: श्वा । कुल घर में रहनेवाला शिकारी कुत्ता-कौलेयक: । (कुक्षि) कुक्षौ भव: कौक्षेयकोऽसि:। कुक्षि-म्यान में रहनेवाली तलवार-कौक्षेयक । (ग्रीवा) ग्रीवायां भवो प्रैवेयक: । ग्रीवा गर्दन में रहनेवाला अलङ्कार (जेवर) ग्रैवेयक-हार, कंठी आदि।
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