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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः आर्यभाषा अर्थ-यथासम्भव विभक्ति-समर्थ (ग्रामात्) ग्राम प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (यखजौ) य और खञ् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-(य) ग्रामे जातो ग्राम्य: । ग्राम में पैदा हुआ-ग्राम्य । (खञ्) ग्रामे जातो ग्रामीणः । ग्राम में पैदा हुआ-ग्रामीण।
सिद्धि-(१) ग्राम्य: । ग्राम+डि+य। ग्राम्+य। ग्राम्य+सु। ग्राम्यः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'ग्राम' शब्द से जात आदि शेष अर्थों में इस सूत्र से य' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
(२) ग्रामीण: । ग्राम+डि+खञ् । ग्राम्+ईन । ग्रामीण+सु । ग्रामीणः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'ग्राम' शब्द से जात आदि शेष अर्थों में इस सूत्र से 'खञ्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से ज्' के स्थान में ईन्' आदेश और तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि होती है। 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है।
ढकञ्
(४) कल्य्यादिभ्यो ढकञ्।।६४।। प०वि०-कत्त्र्यादिभ्य: ५।३ ढकञ् ११। स०-कत्त्रिरादिर्येषां ते-कत्त्र्यादय:, तेभ्य:-कत्त्र्यादिभ्य: (बहुव्रीहिः)। अनु०-शेषे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भ०कत्त्र्यादिभ्यः शेषे ढकञ् ।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थेभ्य: कत्त्र्यादिभ्यः, प्रातिपदिकेभ्य: शेषेष्वर्थेषु ढकञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-कत्त्रौ भव: कात्रेयक: । उम्भौ भव औम्भेयक:, इत्यादिकम्।
कत्त्रि। उम्भि। पुष्कर। पुष्कल। मोदन। कुम्भी। कुण्डिन। नगर। वजी। भक्ति । माहिष्मती। चर्मण्वती। वर्मती। ग्राम । उख्या । कुल्याया यलोपश्च । इति कत्त्र्यादयः ।।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव विभक्ति-समर्थ (कत्त्रादिभ्यः) कत्त्रि आदि प्रातिपदिकों से (शेषे) शेष अर्थों में (ढकञ्) ढकञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-कत्रो भव: कात्रेयकः । तीन कुत्सित पुरुषों में रहनेवाला-कात्त्रेयक। उम्भौ भव औम्भेयकः । उम्भि कैद में रहनेवाला-औम्भेयक, इत्यादि।
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