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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः उदा०-वसन्तमधीते वेद वा वासन्तिकः । जिसमें वसन्त ऋतु का वर्णन है अथवा जो वसन्त ऋतु में पठनीय ग्रन्थ है जो उसको पढ़ता है वा जानता है वह-वासन्तिक। वर्षामधीते वेद वा वार्षिक: । जिसमें वर्षाऋतु का वर्णन है अथवा जो वर्षाऋतु में पठनीय है जो उस ग्रन्थ को पढ़ता है वा जानता है वह-वार्षिक। प्रत्ययस्य लुक्
(६) प्रोक्ताल्लुक् ।६३। प०वि०-प्रोक्तात् ५ १ लुक् १।१। अनु०-तदधीते, तद्वेद इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् प्रोक्तादधीते, वेद प्रत्ययस्य लुक् ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् प्रोक्तप्रत्ययान्तात् प्रातिपदिकादधीते, वेद इत्येतयोरर्थयोर्विहितस्य प्रत्ययस्य लुग् भवति ।
उदा०-पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, तमधीते वेद वा पाणिनीयः। अपिशलिना प्रोक्तमापिशलम्, तमधीते वेद वाऽऽपिशल: ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तद्) द्वितीया-समर्थ (प्रोक्तात्) प्रोक्त-प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से (अधीते, वेद) पढ़ता है वा जानता है अर्थ में विहित प्रत्यय का (लुक्) लोप होता है।
उदा०-पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, तमधीते वेद वा पाणिनीयः । पाणिनि के द्वारा प्रोक्त ग्रन्थ पाणिनीय कहाता है, जो उसे पढ़ता है वा जानता है वह-पाणिनीय। अपिशलिना प्रोक्तमापिशलम्, तमधीते वेद वापिशल: । अपिशलि के द्वारा प्रोक्त ग्रन्थ आपिशल कहाता है, जो उसे पढ़ता है वा जानता है वह आपिशल।
सिद्धि-(१) पाणिनीय: । पाणिनि+टा+छ। पाणिन्+ईय। पाणिनीय+अम्+अण् । पाणिनीय+० । पाणिनीय+सु। पाणिनीयः ।
यहां प्रथम तृतीयासमर्थ पाणिनि' शब्द से तेन प्रोक्तम् (४।३।१०१) से प्रोक्त अर्थ में यथाविहित वृद्धाच्छ:' (४।२।११३) से 'छ' प्रत्यय होता है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है। प्रोक्तप्रत्ययान्त 'पाणिनीय' शब्द से तदधीते तद्वेद' (४।२।५८) से यथाविहित 'अण्' प्रत्यय होता है। इस सूत्र से उस यथाविहित प्रत्यय का लुक् हो जाता है।
(२) आपिशल: । अपिशल+टा+अण्। आपिशल्+अ। आपिशल+अम्+अण् । आपिशल+० । आपिशल+सु। आपिशलम्।
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