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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
संग्रह । गुणागुण। आयुर्वेद । द्विपदी ज्योतिषि । अनुपद। अनुकल्प। अनुगुण। इत्युक्थादयः । ।
आर्यभाषाः अर्थ-(तद्) द्वितीया-समर्थ (क्रतूक्थादिसूत्रान्तात् ) क्रतु= यज्ञविशेषवाची, उक्थ आदि और सूत्रान्त प्रातिपदिकों से (अधीते, वेद) पढ़ता है वा जानता है अर्थ में (ठक) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०- (क्रतुः) अग्निष्टोममधीते वेद वा आग्निष्टोमिकः । अग्निष्टोम नामक यज्ञविशेष को जो पढ़ता है वा जानता है वह आग्निष्टोमिक । वाजपेयमधीते वेद वा वाजपेयिकः । वाजपेय नामक यज्ञविशेष को जो पढ़ता है वा जानता है वह वाजपेयिक । ( उक्थादिः) उक्थमधीते वेद वा औक्थिकः । उक्थ = सामलक्षणसम्बन्धी प्रातिशाख्य को जो पढ़ता है वा जानता है वह - औक्थिक । लोकायतमधीते वेद वा लौकायतिकः । लोकायत दर्शन को जो पढ़ता है वा जानता है वह लौकायतिक। लोकायत = जो इस लोक के अतिरिक्त दूसरे लोक को नहीं मानता है अर्थात् चार्वाक दर्शन को माननेवाला, नास्तिक । (सूत्रान्तः ) वार्तिकसूत्रमधीते वेद वा वार्तिकसूत्रिकः । वार्तिकसूत्र को जो पढ़ता है वा जानता है वह - वार्तिकसूत्रिक । संग्रहसूत्रमधीते वेद वा सांग्रहसूत्रिक: । संग्रहसूत्र को जो पढ़ता है वा जानता है वह सांग्रहसूत्रिक ।
अग्निष्टोम+अम्+ठक् । अग्निष्टोम्+इक ।
सिद्धि- आग्निष्टोमिकः ।
आग्निष्टोमिक + सु । आग्निष्टोमिकः ।
यहां द्वितीयासमर्थ, यज्ञविशेषवाची 'अग्निष्टोम' शब्द से अधीते, वेद अर्थ में इस सूत्र से ठक् प्रत्यय है । 'ठस्येकः' (७ 1३1५०) से 'ठू' के स्थान में 'इक्' आदेश होता है और 'किति चं' (७ 1२1११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही - वाजपेयिकः आदि ।
विशेष-उक्थ-भाष्य के आधार पर कैयट का कथन है कि सामवेद के एक लक्षण ग्रन्थ का नाम 'उक्थ' था। ऋग्वेद की उन ऋचाओं का चुनाव 'होता' (ऋत्विक ) द्वारा किसी एक विशेष अवसर पर होता था, शस्त्र कहलाता है। ऐसे ही उद्गाता द्वारा गेय सामों के संग्रह को 'उक्थ' कहते थे । उक्थों का निश्चय सामवेदीय चरणों की परिषदों का कर्त्तव्य था। उसके लिये जिस ग्रन्थ का निर्माण हुआ वह 'उक्थ' हुआ और उसे पढ़नेवाले लोग ‘औक्थिक' कहे गये (पा०का० भारतवर्ष पृ० ३२८ ) ।
वुन्
(३) क्रमादिभ्यो वुन् । ६० ।
प०वि०-क्रमादिभ्यः ५ । ३ वुन् १ ।१ ।
स०-क्रम आदिर्येषां ते-क्रमादयः, तेभ्यः - क्रमादिभ्यः (बहुव्रीहि: )
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