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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२१६ (२) छान्दसः। यहां द्वितीया-समर्थ छान्दस्' शब्द से पूर्ववत् यथाविहित 'अण्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है।
विशेष-अधीते और वेद इन दोनों अर्थों का निर्देश क्यों किया गया है ? इस विषय में महाभाष्य में लिखा है-किमर्थमिमावुभावाँ निर्दिश्येते, न योऽधीते वेत्त्यसौ, यस्तु वेत्त्यधीतेऽप्यसौ । नैतयोरावश्यक: समावेश: । भवति हि कश्चित् सम्पाठं पठति, न च वेत्ति, कश्चिच्च वेत्ति न च सम्पाठं पठति' (महा० ४।२।५९) । अर्थ-अधीते, वेद इन दोनों का निर्देश क्यों किया है ? क्या ऐसा नहीं है कि जो पढ़ता है वह जानता है और जो जानता है वह पढ़ता भी है ? इन दोनों का समावेश नहीं है क्योंकि ऐसा होता है कि कोई ठीक-ठीक पढ़ता है किन्तु उसे समझता नहीं है और कोई समझता तो है किन्तु उसे ठीक-ठीक पढ़ता नहीं है। अत: यहां जो ठीक-ठीक पढ़ता है उसके लिये 'अधीते' और जो उसे समझता है उसके लिये वेद' पद का निर्देश किया गया है। ठक्
। (२) क्रतूक्थादिसूत्रान्ताट् ठक् ।५६ । प०वि०-ऋतु-उक्थादि-सूत्रान्तात् ५।१ ठक् १।१।
स०-उक्थ आदिर्येषां ते उक्थादय:, सूत्रमन्ते येषां ते-सूत्रान्ताः । क्रतवश्च उक्थादयश्च सूत्रान्ताश्च एतेषां समाहार:-क्रतूक्थादिसूत्रान्तम्, तस्मात्-क्रतूक्थादिसूत्रान्तात् (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्वः) ।
अनु०-तदधीते, तद्वेद इति चानुवर्तते । अन्वय:-तत्-क्रतूक्थादिसूत्रान्ताद् अधीते, वेद ठक् ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थेभ्य: ऋतुविशेषवाचिभ्य उक्थादिभ्यः सूत्रान्तेभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्योऽधीते, वेद इत्येतयोरर्थयोष्ठक प्रत्ययो भवति ।
उदा०- (क्रतुः) अग्निष्टोममधीते वेद वा आग्निष्टोमिकः । वाजपेयमधीते वेद वा वाजपेयिकः। (उक्थादिः) उक्थमधीते वेद वा
औक्थिकः। लोकायतमधीते वेद वा लौकायतिकः। (सूत्रान्त:) वार्तिकसूत्रमधीते वेद वा वार्तिकसूत्रिकः। संग्रहसूत्रमधीते वेद वा सांग्रहसूत्रिकः।
उक्थ। लोकायत। न्याय। निमित्त। पुनरुक्त। निरुक्त। यज्ञ। चर्चा। धर्म। क्रमेतर। श्लक्षण । संहिता। पद। क्रम। संघात। वृत्ति।
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