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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(महाराज:) महाराजो देवताऽस्य-माहाराजिकम् । (प्रोष्ठपदे) प्रोष्ठपदे देवते अस्य-प्रौष्ठपदिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(सा) प्रथमा-समर्थ (महाराज-प्रोष्ठपदात्) महाराज और प्रोष्ठपदा प्रातिपदिकों से (अस्य) षष्ठीविभक्ति के अर्थ में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है (देवता) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह देवता हो।
उदा०-(महाराज:) महाराजो देवताऽस्य-माहाराजिकम्। महाराज-वैश्रवण (कुबेर) है देवता इसका यह-माहाराजिक। (प्रोष्ठपदे) देवते अस्य-प्रौष्ठपदिकम् । प्रौष्ठपदा भाद्रपदा, पूर्व भाद्रपदा और उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र हैं देवता इसके यह-प्रौष्ठपदिक।
सिद्धि-माहाराजिकम् । महाराज+सु+ठञ् । माहाराज+इक। माहाराजिक+सु। माहाराजिकम्।
यहां प्रथमा-समर्थ, देवतावाची 'महाराज' प्रातिपदिक से इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७ ।३।५२) से 'ह' के स्थान में 'इक' आदेश होता है। तद्धितेष्वचामादे:' (७।१।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही प्रौष्ठपदा' शब्द से-प्रौष्ठपदिकम् ।
विशेष-प्रोष्ठपदा नक्षत्र पूर्व-प्रोष्ठपदा और उत्तर-प्रोष्ठपदा भेद से दो प्रकार का है। इसे पूर्व-भाद्रपदा और उत्तर भाद्रपदा भी कहते हैं। 'फाल्गुनीप्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे (१।२।६०) से 'प्रोष्ठपदा' के द्विवचन में विकल्प से बहुवचन होता है। निपातनम्
(१२) पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः ।३५ । प०वि०-पितृव्य-मातुल-मातामह-पितामहाः १।३ ।
स०-पितृव्यश्च मातुलश्च मातामहश्च पितामहश्च ते-पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अर्थ:-पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः शब्दा निपात्यन्ते। समर्थविभक्तिः, प्रत्ययः, प्रत्ययार्थः, अनुबन्धश्चेति सर्वं निपातनाद् वेदितव्यम् ।
उदा०-(पितृव्य:) पितुर्धाता-पितृव्य: । (मातुल:) मातुर्धाता-मातुल: । (मातामहः) मातु: पिता-मातामहः । (पितामहः) पितु: पिता-पितामहः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(पितृव्य०) पितृव्य, मातुल, मातामह, पितामह शब्द निपातित किये जाते हैं। इनमें समर्थ-विभक्ति, प्रत्यय, प्रत्यय का अर्थ और अनुबन्ध सब निपातन से ही जानना चाहिये।
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