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________________ चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः १६५ आर्यभाषा: अर्थ- (सा) प्रथमा-समर्थ (कालेभ्यः) कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से (अस्य) षष्ठीविभक्ति के अर्थ में (भववत्) 'भव' अर्थ के समान प्रत्यय होते हैं (देवता) जो प्रथमा - समर्थ है यदि वह देवता हो । 'कालेभ्य:' इस बहुवचन - निर्देश से कालविशेषवाची 'मास' आदि प्रातिपदिकों का ग्रहण किया जाता है। 'भववत्' का यह अर्थ है कि 'कालाट्ठञ्' (४ | ३ | ११) इस प्रकरण में कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से जो प्रत्यय विधान किये गये हैं, वे 'सास्य देवता' इस अर्थ में भी होते हैं। उदा० - मासो देवताऽस्य- मासिकम् । मास इसका देवता है यह मासिक । अर्धमासो देवताऽस्य-आर्धमासिकम् । अर्धमास (पक्ष) इसका देवता है यह आर्धमासिक । संवत्सरो देवताऽस्य- सांवत्सरिकम् । संवत्सर = वर्ष इसका देवता है यह - सांवत्सरिक । वसन्तो देवताऽस्य-वासन्तम् । वसन्त इसका देवता है यह - वासन्त । प्रावृड् देवताऽस्य- प्रावृषेण्यम् । प्रावृट्=वर्षा ऋतु इसका देवता है यह प्रावृषेण्य । सिद्धि - (१) मासिकम् । मास+सु+ठञ् । मास्+इक । मासिक+सु । मासिकम् । यहां प्रथमा-समर्थ, कालविशेषवाची 'मास' शब्द से 'कालाट्ठञ्' (४ | ३ |११) से विहित ठञ् प्रत्यय इस सूत्र से देवता अर्थ में है । 'ठस्येक:' (७ 1३1५०) से ह्' के स्थान में 'इक्' आदेश होता है । (२) आर्धमासिकम् । 'अर्धमास' शब्द से पूर्ववत् । (३) सांवत्सरिकम् । संवत्सर' शब्द से पूर्ववत् । (४) वासन्तम्। 'वसन्त' शब्द से 'सन्धिवेला धृतुनक्षत्रेभ्योऽण्' (४ | ३ |१६) से 'अण्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादे:' (७ । २ । ११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। (५) प्रावृषेण्यम् । 'प्रावृट्' शब्द से 'प्रावृष एण्यः' (४।३।१७) से 'एण्य' प्रत्यय है। ठञ् (११) महाराजप्रोष्ठपदाट्ठञ् । ३४ । प०वि०- महाराज- प्रोष्ठपदात् ५ ।१ ठञ् १ । १ । स० - महाराजश्च प्रोष्ठपदे च एतयोः समाहारः - महाराजप्रोष्ठपदम्, तस्मात्- महाराजप्रोष्ठपदात् ( समाहारद्वन्द्व : ) । अन्वयः - सा महाराजप्रोष्ठपदादस्य, ठञ् देवता । अर्थ:-सा इति प्रथमासमर्थाभ्यां महाराज - प्रोष्ठपदाभ्यां प्रातिपदिकाभ्याम् अस्य इति षष्ठ्यर्थे ठञ् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं देवता चेत् सा भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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