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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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हवि: (यत्) । ( वास्तोष्पतिः) वास्तोष्पतिर्देवताऽस्य - वास्तोष्पतीयं हविः (छ) । वास्तोष्पत्यं हविः (यत्) । (गृहमेधः ) गृहमेधो देवताऽस्य-गृहमेधीयं हवि: (छः ) गृहमेध्यं हविः (यत्) ।
आर्यभाषाः अर्थ-(सा) प्रथमा-समर्थ ( द्यावापृथिवी०गृहमेधात्) द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वान्, अग्नीषोम, वास्तोष्पति, गृहमेध प्रातिपदिकों से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (छः) छ (च) और (यत्) यत् प्रत्यय होते हैं (देवता) जो प्रथमासमर्थ है यदि वह देवता हो ।
उदा०
- संस्कृत भाग में देख लेवें । अर्थ इस प्रकार है- ( द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी इसके देवता हैं यह द्यावापृथिवीय अथवा द्यावापृथिव्य हवि । (शुनासीर) शुन और सीर इसके देवता हैं यह शुनासीरीय अथवा शुनासीर्य हवि । शुन= वायु । सीर=आदित्य । (मरुत्वान्) मरुत्वान् इसका देवता है यह मरुत्वतीय अथवा मरुत्वत्य हदि । मरुत्वान् = इन्द्र | (अग्नीषोम) अग्नि और सोम इसके देवता हैं यह - अग्नीषोमीय अथवा अग्निषोम्य हवि । ( वास्तोष्पति) वास्तोष्पति इसके देवता हैं यह - वास्तोष्पतीय अथवा वास्तोष्पत्य हवि । वास्तोष्पति = ध् ने घर की रक्षा करनेवाला शुद्ध वायु । (गृहमेध) गृहमेध इसका देवता है यह-गृहमेधीय अथवा गृहमेध्य हवि । गृहमेध = ब्रह्मयज्ञ आदि पांच महायज्ञ करनेवाला गृहस्थ ।
सिद्धि-(१) द्यावापृथिवीयम् । यहां प्रथमा-समर्थ, देवतावाची 'द्यावापृथिवी' प्रातिपदिक से इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है । 'आयनेय०' (७/१/२ ) से 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है।
(२) द्यावापृथिव्यम् । यहां पूर्वोक्त 'द्यावापृथिवी' शब्द से इस सूत्र से 'यत्' प्रत्यय है । 'यस्येति च' (६ |४ | १४८) से अंग के ईकार का लोप होता है।
(३) 'शुनासीरीय' आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् है ।
ढक्
(६) अग्नेर्ढक् । ३२ ।
प०वि०-अग्नेः ५ ।१ ढक् १ । १ ।
अनु०-सा, अस्य, देवता इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - सा अग्नेरस्य ढक् देवता I
अर्थ:- सा इति प्रथमासमर्थाद् अग्नि- शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्य इति षष्ठ्यर्थे ढक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं देवता चेत् सा भवति ।
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