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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्वय:-तत्र दन: संस्कृतं ठक् भक्षाः ।
अर्थ:-तत्र-इति सप्तमी-समर्थाद् दन: प्रातिपदिकात् संस्कृतमित्यस्मिन्नर्थे ठक् प्रत्ययो भवति, यत् संस्कृतं भक्षाश्चेत् ता भवन्ति ।
उदा०-दधनि संस्कृतम्-दाधिकं लवणादिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-समर्थ (दन:) दधि शब्द से (संस्कृतम्) गुणाधान करने अर्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है (भक्षा:) जो गुणाधायक हो वह यदि भक्षा भोजन हो।
उदा०-दधनि संस्कृतम्-दाधिकं लवणादिकम् । दधि-दही में गुणाधान करनेवाला-दाधिक लवण आदि।
सिद्धि-दाधिकम् । दधि+डि+ठक् । दाध्+इक। दाधिक+सु। दाधिकम्।
यहां सप्तमी-समर्थ दधि' शब्द से संस्कृत अर्थ में इस सूत्र से ठक्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३।५०) से ह' के स्थान में इक्’ आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। किति च' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है।
विशेष-यहां संस्कृतम्' शब्द का अर्थ प्रकरणवश गुणाधान करना है, पकाना नहीं। दधि-दही में गुणाधान करनेवाले लवण आदि 'दाधिक' कहाते हैं। जहां दधि के द्वारा ओदन आदि में गुणाधान होता है वहां संस्कृतम्' (४।४।३) से प्राग्वहतीय ठक् प्रत्यय होता है। ठक्-विकल्पः
(४) उदश्वितोऽन्यतरस्याम् ।१८। प०वि०-उदश्वित: ५ ।१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् । अनु०-तत्र, संस्कृतम्, भक्षा इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र उदश्वित: संस्कृतम् अन्यतरस्यां ठक् भक्षाः ।
अर्थ:-तत्र-इति सप्तमी-समर्थाद् उदश्वित: प्रातिपदिकात् संस्कृतमित्यस्मिन्नर्थे विकल्पेन ठक् प्रत्ययो भवति, यत् संस्कृतं भक्षाश्चेत् ता भवन्ति।
उदा०-उदश्विति संस्कृतम्-औदश्वित्कम्, औदश्वितं वा।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-समर्थ (उदश्वित:) उदश्वित् प्रातिपदिक से (संस्कृतम्) गुणाधान अर्थ में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है (भक्षा:) जो गुणाधायक हो यदि वह भक्षा-भोजन हो।
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