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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अञ्
___ (३) द्वैपवैयाघ्राद।११। प०वि०-द्वैप-वैयाघ्रात् ५।१ अञ् १।१ ।
तद्धितवृत्ति:- द्वीपिव्याघ्रशब्दाभ्याम् ‘प्राणिरजतादिभ्योऽज्' (४।३।१५२) इति विकारार्थेऽञ् प्रत्यय: । 'भस्य टेर्लोप:' (७।११८८) इति द्वीपिनष्टेर्लोपो भवति।
स०-द्वैपश्च वैयाघ्रश्च एतयो: समाहार:-द्वैपवैयाघ्रम्, तस्मात्द्वैपवैयाघ्रात् (समाहारद्वन्द्वः) ।
अनु०-तेन, परिवृत:, रथ इति चानुवर्तते। अन्वय:-तेन द्वैपवैयाघ्राभ्यां परिवृतोऽञ् रथः ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाभ्यां द्वैपवैयाघ्राभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां परिवृत इत्यस्मिन्नर्थेऽन् प्रत्ययो भवति, योऽसौ परिवृतो रथश्चेत् स भवति।
उदा०- (द्वैप:) द्वैपेन परिवृत:-द्वैपो रथः। (वैयाघ्रः) वैयाघेण परिवृत:-वैयाघ्रो रथः।
आर्यभाषा: अर्थ-(तेन) तृतीया-समर्थ (द्वैपवैयाघ्राभ्याम्) द्वैप और वैयाघ्र प्रातिपदिकों से (परिव्रत:) आच्छादित अर्थ में (अञ्) अञ् प्रत्यय होता है (रथः) जो आच्छादित किया है यदि वह रथ हो।
उदा०- (द्वैप) द्वैपेन परिवृत:-वैपो रथः । गज चर्म से परिवृत (मंढा हुआ)-द्वैप रथ। (वैयाघ्र) वैयाघ्रण परिवृत-वैयाघ्रो रथ: । व्याघ्र चर्म से परिवृत (मंढा हुआ)-वैयाघ्र रथ।
सिद्धि-द्वैपः । द्वैप टा+अञ् । द्वैपू+अ। द्वैप+सु । द्वैपः।
यहां द्वैप' शब्द से परिवृत अर्थ में इस सूत्र में 'अन्' प्रत्यय है। पर्जन्यवत् सूत्र प्रवृत्ति होने से तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-वैयाघ्रः।
विशेष-यहां प्रथम द्वीपिन् तथा व्याघ्र शब्द से 'प्राणिरजतादिभ्योऽज्ञ (४।३।१५२) से विकार अर्थ में 'अञ्' प्रत्यय है। द्वीपी का विकार द्वैप और व्याघ्र का विकार वैयाघ्र कहाता है। यहां रथ-परिवृत के प्रकरणवश द्वैप का अर्थ गजचर्म और वैयाघ्र का अर्थ व्याघ्र चर्म अर्थ ग्रहण किया जाता है।
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