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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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आर्यभाषाः अर्थ- (तन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (परिवृतः ) आच्छादित अर्थ में (प्राग्दीव्यतः) प्राग्दीव्यतीय (अण्) अण् प्रत्यय होता है ( रथः) जो आच्छादित किया है यदि वह रथ हो ।
उदा० - वस्त्रेण परिवृत:- वास्त्रो रथः । वस्त्र से ढका हुआ (मंढा हुआ) - वास्त्ररथ । कम्बलेन परिवृतः - काम्बलो रथ: । कम्बल से ढका हुआ-काम्बलरथ । चर्मणा परिवृत:चार्मणो रथः । चाम से ढका हुआ- चार्मण रथ।
सिद्धि
- वास्त्रः । वस्त्र+टा+अण् । वास्त्र+अ । वास्त्र + सु । वास्त्रः । यहां 'वस्त्र' शब्द से परिवृत (रथ) अर्थ में इस सूत्र से प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही - काम्बलः, चार्मणः ।
इनि:
(२) पाण्डुकम्बलादिनिः | १० | प०वि० पाण्डुकम्बलात् ५ । १ इनिः १ । १ । अनु० - तेन परिवृतः, रथ इति चानुवर्तते । अन्वयः-तेन पाण्डुकम्बलात् परिवृत इनी रथ: ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् पाण्डुकम्बलात् प्रातिपदिकात् परिवृत इत्यस्मिन्नर्थे इनिः प्रत्ययो भवति, योऽसौ परिवृतो रथश्चेत् स भवति । उदा० - पाण्डुकम्बलेन परिवृतः पाण्डुकम्बली रथः ।
आर्यभाषाः अर्थ - (तन) तृतीया-समर्थ (पाण्डुकम्बलात्) पाण्डुकम्बल प्रातिपदिक से (परिवृतः) आच्छादित अर्थ में (इनि:) इनि प्रत्यय होता है (रथः) जो आच्छादित किया गया है यदि वह रथ हो ।
उदा० - पाण्डुकम्बलेन परिवृतः - पाण्डुकम्बली रथ: । पीले कम्बल से आच्छादित (मंढा हुआ ) - पाण्डुकम्बली रथ ।
पाण्डुकम्बल+टा+इनि । पाण्डुकम्बल्+इन् ।
यहां ‘पाण्डुकम्बल' शब्द से परिवृत अर्थ में इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय है। 'सौ च' (६ । ४ । १३) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ, 'हल्डयाब्भ्यो० ' ( ६ । १ । ६६ ) से 'सु' का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८ 1२ 1७ ) से नकार का लोप होता है।
सिद्धि-पाण्डुकम्बली । पाण्डुकम्बलिन् + सु । पाण्डुकम्बली ।
विशेष- वेस्सन्तर जातक में लिखा है कि पाण्डुकम्बल गन्धार देश में बनाये जाते थे और बीरबहूटी के जैसे चटकीले व लाल रंग के होते थे। जातक की टीका के अनुसार वे कम्बल सेना के काम के लिये गन्धार देश से अन्यत्र ले जाये जाते थे। (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० १५४) ।
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