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चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः
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पूर्वसूत्राद् यद् ‘पौत्रप्रभृति' इत्यनुवर्तते तदत्र षष्ठ्यां विपरिणम्यते । तेन चतुर्थादपत्यादारभ्य युवसंज्ञा विधीयते ।
उदा० - गार्ग्यस्य युवापत्यम् - गार्ग्यायणः । वत्सस्य युवापत्यम्
वात्स्यायन: ।
आर्यभाषाः अर्थ- (वंश्ये) वंश के पिता आदि के (जीवति) जीवित रहने पर (पौत्रप्रभृतेः ) पौत्र आदि के ( अपत्यम् ) सन्तान की (युवा) युवासंज्ञा (तु) ही होती है, गोत्रसंज्ञा नहीं ।
उदा०-गार्ग्यस्य युवापत्यम्- गार्ग्यायण: । गार्ग्य का युवापत्य-गार्ग्यायण। वात्स्यस्य युवापत्यम्- - वात्स्यायनः । वात्स्य का युवापत्य- वात्स्यायन ।
सिद्धि-गार्ग्यायणः। गर्ग + ङस् +यञ् । गाग्र् +य । गार्ग्य । गार्ग्य + ङस् + फक् । गार्ग्यं+आयन। गार्ग्यायण+सु । गार्ग्यायणः ।
यहां प्रथम षष्ठीसमर्थ 'गर्ग' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में 'गर्गादिभ्यो यञ्' (४ 181904) से 'यञ्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् 'गोत्राद् यून्यस्त्रियाम्' (४।१।९४) के नियम से गो प्रत्ययान्त षष्ठी - समर्थ 'गार्ग्य' शब्द से युवापत्य अर्थ में 'यञिञोश्च' (४ 1१1१०१) से 'फक्' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - वात्स्यायनः ।
विशेष- प्रथम पुरुष 'गर्ग' है। गर्ग का पुत्र 'गार्गि' कहाता है। यहां 'अत इञ्' (४ 1१1९५) से अपत्य अर्थ में 'इञ्' प्रत्यय होता है। 'गर्ग' का गोत्रापत्य= पौत्र 'गार्ग्य' कहाता है। यहां 'गर्गादिभ्यो यञ्' (४।१।१०५ ) से गोत्रापत्य अर्थ में 'यञ्' प्रत्यय होता है। गार्ग्य का युवापत्य 'गार्ग्यायण' कहाता है। यहां 'यञिञोश्च' ( ४ । १ । १०१ ) से युवापत्य अर्थ में 'फक्' प्रत्यय होता है। जब तक वंश्य गार्गि आदि जीवित रहते हैं तब तक चतुर्थ पुत्र की 'गार्ग्यायण' युव- संज्ञा (छोरा) होती है। 'गार्गि' आदि के जीवित न रहने पर चतुर्थ पुत्र की गोत्र संज्ञा होती है- गार्ग्य ।
युव-संज्ञा
(२) भ्रातरि च ज्यायसि । १६४ |
प०वि० - भ्रातरि ७।१ च अव्ययपदम्, ज्यायसि ७ ।१ । अनु० - अपत्यं पौत्रप्रभृति जीवति युवा इति चानुवर्तते । अन्वयः-ज्यायसि भ्रातरि जीवति पौत्रप्रभृतेरपत्यं युवा । अर्थ:- ज्यायसि भ्रातरि जीवति सति च पौत्रप्रभृतेर्यदपत्यं तद् युवसंज्ञकं
भवति ।
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