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________________ १४० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) कौसल्यकाभर्याभ्यां च।१५५ । प०वि०-कौसल्य-कार्मार्याभ्याम् ५ ।२ च अव्ययपदम् । स०-कौसल्यश्च कार्मायश्च तौ-कौसलकार्मार्यो, ताभ्याम्कौसल्यकार्यािभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-तस्य, अपत्यम्, फिञ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य कौसल्यकाार्याभ्यां चापत्यं फिञ्। अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाभ्यां कौसल्यकार्यािभ्यां च प्रातिपदिकाम्यामपत्यमित्यस्मिन्नर्थे फिञ् प्रत्ययो भवति । उदा०-कोसलस्यापत्यम्-कौसल्यायनिः। कार्मार्यस्यापत्यम्कार्याियणिः । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (कौसल्यकार्यािभ्याम्) कौसल्य और कार्यि प्रातिपदिकों से (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (फिञ्) फिञ् प्रत्यय होता है। उदा०-कोसलस्यापत्यम्-कौसल्यायनि: । कोसल देश का पुत्र-कौसल्यायनि । कोसल प्राचीन जनपद (अवध)। कार्मार्यस्यापत्यम्-कार्मार्यायणिः। कारीगर का पुत्र-कार्याियणि। सिद्धि-(१) कौसल्यायनिः। कोसल+डस्+फिञ्। कौसल्य्+आयनि । कौसल्यायनि+सु । कौसल्यायनिः । यहां षष्ठी-समर्थ कोसल' शब्द से अपत्य अर्थ में इस सूत्र से 'फिञ्' प्रत्यय होता है। इस सूत्रोक्त निपातन से कोसल' शब्द के स्थान में कौसल्य' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (२) कार्मार्यायणि: । करि+डस्+फिञ्। कार्यि+आयनि। कार्याियणि+सु। कार्यायणिः । यहां कार' शब्द से अपत्य अर्थ में इस सूत्र से फिञ्' प्रत्यय होता है। इस सूत्रोक्त निपातन से कर्मार' शब्द के स्थान में कार्यि' आदेश होता है। अट्कुप्वाङ्' (८।१।२) से णत्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। फिञ् (३) अणो व्यचः।१५६। प०वि०-अण: ५ ।१ द्वि-अच: ५।१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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