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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०- (कपि:) कपेर्गोत्रापत्यम्-काप्य आङ्गिरसः। कपि ऋषि का पौत्र-काप्य आङ्गिरस। (बोध:) बोधस्य गोत्रापत्यम्-बौध्य आङ्गिरस: । बोध ऋषि का पौत्र-बौध्य आङ्गिरसः।
सिद्धि-(१) काप्य: । कपि+डस्+यञ्। काप्+य । काप्य+सु । काप्यः ।
यहां षष्ठी-समर्थ 'कपि' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में इस सूत्र से 'यञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-बौध्यः ।
विशेष-कपि शब्द गर्गादिगण में पठित है, उससे यज्' प्रत्यय तो सिद्ध ही है किन्तु कपि शब्द से आङ्गिरस अर्थ में ही 'य' प्रत्यय हो इस नियम के लिए यहां कथन किया गया है।
यञ्
(४) वतण्डाच्च।१०८। प०वि०-वतण्डात् ५।१ च अव्ययपदम् । अनु०-तस्य, अपत्यम्, गोत्रे, यञ्, आङ्गिरसे इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य वतण्डाच्च गोत्रेऽपत्यं यञ्, आङ्गिरसे।
अर्थ:-तस्य-इति षष्ठीसमर्थाद् वतण्डात् प्रातिपदिकादपि गोत्रापत्येऽर्थे यञ् प्रत्ययो भवति, आङ्गिरसेऽभिधेये।
उदा०-वतण्डस्य गोत्रापत्यम्-वातण्ड्य आङ्गिरसः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (वतण्डात) वतण्ड प्रातिपदिक से (च) भी (गोत्रे, अपत्यम्) गोत्रापत्य अर्थ में (यज्) यञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-वतण्डस्य गोत्रापत्यम्-वातण्ड्य आङ्गिरसः। वतण्ड ऋषि का पौत्र-वातण्ड्य आङ्गिरस।
सिद्धि-वातण्ड्यः । वतण्ड+डस्+यञ् । वातण्ड्+य। वातण्ड्य+सु । वातण्ड्यः ।
यहां षष्ठी-समर्थ 'वतण्ड' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में इस सूत्र से यञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष-वतण्ड शब्द गर्गादिगण में पठित हैं और यह शब्द शिवादिगण में भी पठित है। अत: शिवादिभ्योऽण् (४।१।११२) से आगिरस अर्थ में अण् प्रत्यय भी प्राप्त होता है। उसके प्रतिषेध के लिए यह कथन किया गया है कि आङ्गिरस अर्थ में यज्' प्रत्यय ही हो; अण् न हो।
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